गीता रहस्य -तिलक पृ. 361

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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बारहवां प्रकरण

पाठकों के ध्‍यान में आ ही जावेगा कि भगवद्गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ, त्रिगुणातीत, अथवा परमभक्‍त या ब्रह्मभूत पुरुष के वर्णन से इस वर्णन की कितनी समता है। “यस्‍मान्‍नोद्विजते लोको लोकन्‍नेद्विजते च य:”[1] जिससे लोग ऊबते नहीं या कष्‍ट नहीं पाते, और लोगों को भी जो नहीं खलता, ऐसे ही जो हर्ष-खेद, भय-विषाद, सुख-दुख आदि बन्‍धनों से मुक्‍त है, सदा अपने आप में ही सन्‍तुष्‍ट है[2], त्रिगुणों से जिसका अन्‍त:करण चंचल नहीं होता[3], स्‍तुति या निन्‍दा, और मान या अपमान जिसे एक से है, तथा प्राणिमात्र के अन्‍तर्गत आत्‍मा की एकता को परख कर[4] साम्‍यबुद्धि से आसक्ति छोड़ कर, धैर्य और उत्‍साह से अपना कर्त्‍तव्‍य कर्म करने वाला अथवा सम लोष्‍ट अश्‍म कांचन[5],-इत्‍यादि प्रकार से भगवद्गीता में भी स्थितप्रज्ञ के लक्षण तीन-चार बार विस्‍तारपूर्वक बतलाये गये हैं। इसी अवस्‍था को सिद्धावस्‍था या ब्राह्मी स्थिति कहते हैं। और योगवासिष्‍ठ आदि के प्रणेता इसी स्थिति को जीवन्‍मुक्‍तावस्‍था कहते हैं। इस स्थिति का प्राप्‍त हो जाना अत्‍यन्‍त दुर्घट है, अतएव जर्मन तत्‍ववेत्‍ता कान्‍ट का कथन है कि , ग्रीक पण्डितों ने इस स्थिति का जो वर्णन किया है वह किसी एक वास्‍तविक पुरुष का वर्णन नहीं है, बल्कि शुद्ध नीति के तत्‍वों को, लोगों के मन में भर देने के लिये, समस्‍त नीति की जड़ ‘शुद्ध वासना’ को ही मनुष्‍य का चोला दे कर उन्‍होंने परले सिरे के ज्ञानी और नीतिमान पुरुष का चित्र अपनी कल्‍पना से तैयार किया है।

लेकिन हमारे शास्‍त्रकारों का मत है कि यह स्थिति ख़याली नहीं, बिल्‍कुल सच्‍ची है और मन का निग्रह तथा प्रयत्‍न करने से इसी लोक में प्राप्‍त हो जाती है; इस बात का प्रत्‍यक्ष अनुभव भी हमारे देशवालों को प्राप्‍त है। तथापि यह बात साधारण नहीं है, गीता[6] में ही स्‍पष्‍ट कहा है कि हजारों मनुष्‍यों में कोई एक-आध मनुष्‍य इसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्‍न करता है, और इन हज़ारों मनुष्‍यों में प्रयत्‍न करने वालें में किसी विरले को ही अनेक जन्‍मों के अनन्‍तर परमावधि की यह स्थिति अन्‍त में प्राप्‍त होती है। स्थितप्रज्ञ-अवस्‍था या जीवन्‍मुक्‍त-अवस्‍था कितनी ही दुष्‍प्राय क्‍यों न हो, पर जिस पुरुष को यह परमावधि की सिद्धि एक बार प्राप्‍त हो जाय उसे कार्य-अकार्य के अथवा नीतिशास्‍त्र के नियम बतलाने की कभी आवश्‍यकता नहीं रहती। ऊपर इसके जो लक्षण बतला आये हैं, उन्‍ही से यह बात आप ही निष्‍पन्‍न हो जाती है क्‍योंकि परमावधि की शुद्ध, सम और पवित्र बुद्धि ही नीति का सर्वस्‍व है, इस कारण ऐसे स्थिप्रज्ञ पुरुषों के लिये नीति नियमों का उपयोग करना मानों स्‍वयंप्रकाश सूर्य के समीप अन्‍धकार होने की कल्‍पना करके उसे मशाल दिखलाने के समान, असमंजस में पड़ना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 12. 15.
  2. आत्‍मन्‍येवात्‍मना तुष्‍ट : गी. 2. 55
  3. गुणौर्यो न विचाल्‍यते 14. 23
  4. 18. 54
  5. 14. 24
  6. 7. 3

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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