गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
इसी प्रकार उपनिषदों में भी कथा है कि अश्वपति कैकेय राजा ने उद्दालक ऋषि को[1] और काशिराज अजातशत्रु ने गार्ग्य बालाकी को (बृ. 2. 1) ब्रह्मज्ञान सिखाया था। परन्तु यह वर्णन कहीं नहीं मिलता, कि अश्वपति या जनक ने राजपाट छोड़ कर कर्मत्याग रूप संन्यास ले लिया। इसके विपरीत, जनक-सुलभा संवाद में जनक ने स्वंय अपने विषय में कहा है कि “हम मुक्त्संग हो कर–आसक्ति छोड़ कर–राज्य करते हैं। यदि हमारे एक हाथ को चन्दन लगाओ और दूसरे को छील डालो, तो भी उसका सुख और दु:ख हमें एक सा ही है।” अपनी स्थिति का इस प्रकार वर्णन कर[2]जनक ने आगे सुलभा से कहा है– मोक्षे हि त्रिविधा निष्ठा दृष्टाऽन्यैर्मोक्षवित्तमै:। अर्थात ‘’ मोक्षशास्त्र के ज्ञाता मोक्ष-प्राप्ति के लिये तीन प्रकार की निष्ठाएं बतलाते हैं;-
निष्ठा शब्द का सामान्य अर्थ अन्तिम स्थिति, आधार या अवस्था है। परन्तु इस स्थान पर और गीता में भी निष्ठा शब्द का अर्थ ‘’ मनुष्य के जीवन का वह मार्ग, ढंग, रीति या उपाय है, जिससे आयु बिताने पर अन्त में मोक्ष की प्राप्ति होती है।" गीता पर जो शांकरभाष्य है, उसमें भी निष्ठा–अनुष्ठेयतात्पर्य–अर्थात् आयुष्य या जीवन में, जो कुछ अनुष्ठेय (आचरण करने योग्य) हो उसमें तत्परता (निमग्र रहना)–यही अर्थ किया है। आयुष्य–क्रम या जीवन-क्रम के इन मार्गों में से यज्ञ-याग आदि कर्म करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है– ईजाना बहुभि: यज्ञै: ब्राह्मणा वेदपारगा:। क्योंकि, ऐसा न मानने से, शास्त्र की अर्थात वेद की आज्ञा व्यर्थ हो जावेगी[4]। और, उपनिषत्कार तथा बादरायणाचार्य ने, यह निश्चय कर कि यज्ञ-याग आदि सभी कर्म गौण हैं, सिद्धांत किया है कि मोक्ष प्राप्ति ज्ञान से ही होती है, ज्ञान के सिवा और किसी से भी मोक्ष का मिलना शक्य नही[5]। परन्तु जनक कहते हैं कि इन दोनों निष्ठाओं को छोड़ कर आसक्ति-विरहित कर्म करने की एक तीसरी ही निष्ठा पंचशिख न (स्वंय सांख्यमार्गी हो कर भी) हमें बतलाई है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छां. 5. 11-24
- ↑ मभा. शां. 320. 36
- ↑ मभा. शां. 320. 38-40
- ↑ जै. सू. 5. 2. 23 पर शाबरभाष्य दखो
- ↑ वेसू. 3. 4. 1, 2
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