गीता रहस्य -तिलक पृ. 301

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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ग्यारहवाँ प्रकरण

शांकरभाष्‍य में ही क्‍यों, रामानुजभाष्‍य में भी यह श्‍लोक कर्मयोग की प्रंशसा करने वाला– अर्थवादात्‍मक ही माना गया है[1]। रामानुजाचार्य यद्यपि अद्वैती न थे, तो भी उनके मत में भक्त्‍िा की मुख्‍य साध्‍य वस्‍तु है इसलिये कर्मयोग ज्ञानयुक्‍त भक्त्‍िा का साधन ही हो जाता है[2]। मूल ग्रंन्‍थ से टीकाकारों का सम्‍प्रदाय भिन्‍न है; परन्‍तु टीकाकार इस दृढ़ समझ से उस ग्रन्‍थ की टीका करने लगे, कि हमारा मार्ग या सम्‍प्रदाय ही मूल ग्रन्‍थ में वर्णित है। पाठक देखें, कि इससे मूल ग्रन्‍थ की कैसी खींचातानी हुई है। भगवान श्रीकृष्ण या व्‍यास को, संस्‍कृत भाषा में स्‍पष्‍ट शब्‍दों के द्वारा, क्‍या यह कहना न आता था, कि अर्जुन। तेरा प्रश्‍न ठीक नहीं है’ॽ परन्‍तु ऐसा न करके जब अनेक स्‍थलों पर स्‍पष्‍ट रीति से यही कहा है, कि “कर्मयोग ही विशेष योग्‍यता का है” तब कहना पड़ता है कि साम्‍प्रदायिक टीकाकारों का उल्लिखित अर्थ सरल नहीं है, और पूर्वापर संदर्भ देखने से भी यही अनुमान दृढ़ होता है क्‍योंकि गीता में ही, अनेक स्‍थानों पर ऐसा वर्णन है, कि ज्ञानी पुरुष कर्म का संन्‍यास न कर ज्ञान-प्राप्ति के अनन्‍तर भी अनासक्‍त बुद्धि से अपने सब व्‍यवहार किया करता है[3]। इस स्‍थान पर श्री शंकराचार्य ने भाष्‍य में पहले यह प्रश्‍न किया है कि मोक्ष ज्ञान से मिलता है या ज्ञान और कर्म के समुच्‍चय से; और फिर यह गीतार्थ निश्‍चित किया है, कि केवल ज्ञान से ही सब कर्म दग्‍ध हो कर मोक्ष-प्राप्ति होती है, मोक्ष-प्राप्ति के लिये कर्म की आवश्‍यकता नहीं।

इससे आगे यह अनुमान निकाला है, कि ‘जब गीता की दृष्टि से भी मोक्ष के लिये कर्म की आवश्‍यकता नहीं है, तब चित्त-शुद्धि हो जाने लिये ज्ञान-प्राप्ति के अनन्‍तर ज्ञानी पुरुष को कर्म छोड़ देना चाहिये’– यही मत चाहिये इस मत को ‘ज्ञानकर्मसमुच्‍चय पक्ष’ कहते है; और श्रीशंकराचार्य की उपयुक्‍त दलील ही उस पक्ष के विरुद्ध मुख्‍य आपेक्ष है। ऐसा ही युक्तिवाद मध्‍वाचार्य ने भी स्‍वीकृत किया है[4]। हमारी राय में यह युक्तिवाद समाधानकारक अथवा निरुतर नहीं है। क्‍योंकि,

  1. यद्यपि काम्‍य कर्म बन्‍धन को कर ज्ञान के विरुद्ध हैं तथापि यह न्‍याय निष्‍काम कर्म को लागू नहीं; और
  2. ज्ञान-प्राप्ति के अनन्‍तर मोक्ष के लिये कर्म अनावश्‍यक भले हुआ करे, परन्‍तु उससे यह सिद्ध करने के लिये कोई बाधा नहीं पहुँचती कि ‘अन्‍य सबल कारणों से ज्ञानी पुरुष को ज्ञान के साथ ही कर्म करना आवश्‍यक है’। मुमुक्षु का सिर्फ चित्त शुद्ध करने के लिये ही संसार में कर्म का अपयोग नहीं है और न इसीलिये कर्म-उत्‍पन्‍न ही हुए हैं। इसलिये कहा जा सकता है कि मोक्ष के अतिरिक्‍त अन्‍य कारणों के लिये स्‍वधर्मानुसार प्राप्‍त होने वाले कर्म-सृष्टि के समस्‍त व्‍यवहार निष्‍काम बुद्धि से करते ही रहने की ज्ञानी पुरुष को भी जरूरत है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. राभा. 5.1
  2. गी. राभा. 3.1 देखो
  3. गी. 2.64; 3.19; 3.25; 18.9 देखो
  4. गी. माभा. 3. 31 देखो

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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