गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
शांकरभाष्य में ही क्यों, रामानुजभाष्य में भी यह श्लोक कर्मयोग की प्रंशसा करने वाला– अर्थवादात्मक ही माना गया है[1]। रामानुजाचार्य यद्यपि अद्वैती न थे, तो भी उनके मत में भक्त्िा की मुख्य साध्य वस्तु है इसलिये कर्मयोग ज्ञानयुक्त भक्त्िा का साधन ही हो जाता है[2]। मूल ग्रंन्थ से टीकाकारों का सम्प्रदाय भिन्न है; परन्तु टीकाकार इस दृढ़ समझ से उस ग्रन्थ की टीका करने लगे, कि हमारा मार्ग या सम्प्रदाय ही मूल ग्रन्थ में वर्णित है। पाठक देखें, कि इससे मूल ग्रन्थ की कैसी खींचातानी हुई है। भगवान श्रीकृष्ण या व्यास को, संस्कृत भाषा में स्पष्ट शब्दों के द्वारा, क्या यह कहना न आता था, कि अर्जुन। तेरा प्रश्न ठीक नहीं है’ॽ परन्तु ऐसा न करके जब अनेक स्थलों पर स्पष्ट रीति से यही कहा है, कि “कर्मयोग ही विशेष योग्यता का है” तब कहना पड़ता है कि साम्प्रदायिक टीकाकारों का उल्लिखित अर्थ सरल नहीं है, और पूर्वापर संदर्भ देखने से भी यही अनुमान दृढ़ होता है क्योंकि गीता में ही, अनेक स्थानों पर ऐसा वर्णन है, कि ज्ञानी पुरुष कर्म का संन्यास न कर ज्ञान-प्राप्ति के अनन्तर भी अनासक्त बुद्धि से अपने सब व्यवहार किया करता है[3]। इस स्थान पर श्री शंकराचार्य ने भाष्य में पहले यह प्रश्न किया है कि मोक्ष ज्ञान से मिलता है या ज्ञान और कर्म के समुच्चय से; और फिर यह गीतार्थ निश्चित किया है, कि केवल ज्ञान से ही सब कर्म दग्ध हो कर मोक्ष-प्राप्ति होती है, मोक्ष-प्राप्ति के लिये कर्म की आवश्यकता नहीं। इससे आगे यह अनुमान निकाला है, कि ‘जब गीता की दृष्टि से भी मोक्ष के लिये कर्म की आवश्यकता नहीं है, तब चित्त-शुद्धि हो जाने लिये ज्ञान-प्राप्ति के अनन्तर ज्ञानी पुरुष को कर्म छोड़ देना चाहिये’– यही मत चाहिये इस मत को ‘ज्ञानकर्मसमुच्चय पक्ष’ कहते है; और श्रीशंकराचार्य की उपयुक्त दलील ही उस पक्ष के विरुद्ध मुख्य आपेक्ष है। ऐसा ही युक्तिवाद मध्वाचार्य ने भी स्वीकृत किया है[4]। हमारी राय में यह युक्तिवाद समाधानकारक अथवा निरुतर नहीं है। क्योंकि,
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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