गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
दसवाँ प्रकरण
इन कर्मों को करते समय फलाशा भी छोड़ दी जाती है जिसके कारण स्वर्ग का आना-जाना भी छूट जाता है और इन कर्मों को करने पर भी अन्त में मोक्षरूपी सद्गति मिल जाती है[1]। सारांश यह है कि संसार यज्ञमय या कर्ममय है सही; परन्तु कर्म करने वालों के दो वर्ग होते हैं। पहले वे जो शास्त्रोक्त रीति से, पर फलाशा छोड़कर, कर्म किया करते हैं (कर्मकांडी लोग); और दूसरे वे जो निष्काम बुद्धि से केवल कर्तव्य समझकर कर्म किया करते हैं (ज्ञानी लोग)। इनके संबंध में गीता का यह सिद्धांत है कि कर्मकांडियों को स्वर्ग-प्राप्तिरूप अनित्य फल मिलता है और ज्ञान से अर्थात निष्कामबुद्धि से कर्म करने वाले ज्ञानी पुरुषों को मोक्षरूपी नित्य फल मिलता है। मोक्ष के लिये कर्मों का छोड़ना गीता में कही भी नहीं बतलाया गया है। इसके विपरीत अठारहवें अध्याय के आरंभ मे स्पष्टतया बतला दिया है कि “त्याग–छोड़ना” शब्द से गीता में कर्मत्याग कभी भी नहीं समझना चाहिये, किन्तु उसका अर्थ, फलत्यागही सर्वत्र विवक्षित है। इस प्रकार कर्मकांडियों और कर्मयोगियों को भिन्न भिन्न लोकों में भिन्न फल मिलते हैं जिसके कारण प्रत्येक को मृत्यु के बाद भिन्न भिन्न लोकों में भिन्न भिन्न मार्गों से जाना पड़ता है। इन्हीं मार्गों को क्रम से ‘देवयान’ कहते हैं[2]; और उपनिषदों के आधार से गीता के आठवें अध्याय में इन्हीं मार्गों का वर्णन किया गया है। वह मनुष्य, जिसको ज्ञान हो गया है– और कम से कम अन्तकाल में ज्ञान अवश्य ही हो गया हो[3]– देहपात होने के अनन्तर और चिता में शरीर जल जाने पर, उस अग्नि से ज्योति (ज्वाला), दिवस, शुक्रपक्ष और उत्तरायण के छ: महीने, में प्रयाण करता हुआ ब्रह्मपद को जा पहुँचता है तथा वहाँ उसे मोक्ष प्राप्त होता है जिसके कारण वह पुन: जन्म ले कर मृत्युलोक में फिर नहीं लौटता; परन्तु जो केवल कर्मकांडी है अर्थात जिसे ज्ञान नहीं है, वह उसी अग्नि से धुंआ, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के छ: महिने, इस क्रम से प्रयाण करता हुआ चन्द्रलोक को पहुँचता है और अपने किये हुए सब पुण्यकर्मों को भोग करके फिर इस लोक में जन्म लेता है; इन दोनों मार्गों में यही भेद है[4]। ‘ज्योति’ (ज्वाला) शब्द के बदले उपनिषदों में ‘अर्चि’ (ज्वाला) शब्द का प्रयोग किया गया है जिससे पहले मार्ग को ‘अर्चिरादि’ और दूसरे को ‘धूम्रादि’ मार्ग भी कहते हैं। हमारा उतरायण उतर ध्रुवस्थल में रहने वाले देवताओं का दिन है और हमारा दक्षिणायन उनकी रात्रि है। इस परिभाषा पर ध्यान देने से मालूम हो जाता है कि इन दोनों मार्गों में से पहला आर्चिरादि (ज्योतिरादि) मार्ग आरम्भ से अन्त तक प्रकाशमय है और दूसरा धूम्रादि मार्ग अन्धकारमय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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