गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
सब प्राणियों के विषय में काया वाचा मन से सदैव ऐसी ही साम्यबुद्धि रख अपने सब कर्मों को करते रहना ही नित्य-मुक्तावस्था, पूर्णयोग या सिद्धावस्था है। इस अवस्था के जो वर्णन गीता में हैं, उनमें से बारहवें अध्याय वाले भक्तिमान पुरुष के वर्णन पर टीका करते हुए ज्ञानेश्वर महाराज [1] ने अनेक दृष्टांत दे कर ब्रह्मभूत पुरुष की साम्यावस्था का अत्यंत मनोहर और चटीकला निरूपण किया है; और यह कहने में कोई हर्ज नहीं, कि इस निरूपण में गीता के चारों स्थानों में वर्णित ब्राह्मी अवस्था का सार आ गया है; यथा:- “हे पार्थ! जिसके हृदय में विषमता का नाम तक नहीं है, जो शत्रु और मित्र दोनों को समान ही मानता है; अथवा हे पांडव! दीपक के समान जो इस बात का भेद-भाव नहीं जानता, कि यह मेरा घर है इसलिये यहाँ प्रकाश करूँ और वह पराया घर है इसलिये वहाँ अँधेरा करूँ; बीज बोने वाले पर और पेड़ को काटने वाले पर भी वृक्ष जैसे समभाव से छाया करता है; इत्यादि[2]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ज्ञानेश्वर महाराज के ‘ज्ञानेश्वरी’ ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद श्रीयुत रघुनाथ माधव भगाड़े, बी. ए. सब जज, नागपुर ने किया है; और यह ग्रंथ उन्हीं से मिल सकता है।
- ↑ ज्ञा. 12.18
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