गीता रहस्य -तिलक पृ. 237

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण

सब प्राणियों के विषय में काया वाचा मन से सदैव ऐसी ही साम्यबुद्धि रख अपने सब कर्मों को करते रहना ही नित्य-मुक्तावस्था, पूर्णयोग या सिद्धावस्था है। इस अवस्था के जो वर्णन गीता में हैं, उनमें से बारहवें अध्याय वाले भक्तिमान पुरुष के वर्णन पर टीका करते हुए ज्ञानेश्वर महाराज [1] ने अनेक दृष्टांत दे कर ब्रह्मभूत पुरुष की साम्यावस्था का अत्यंत मनोहर और चटीकला निरूपण किया है; और यह कहने में कोई हर्ज नहीं, कि इस निरूपण में गीता के चारों स्थानों में वर्णित ब्राह्मी अवस्था का सार आ गया है; यथा:- “हे पार्थ! जिसके हृदय में विषमता का नाम तक नहीं है, जो शत्रु और मित्र दोनों को समान ही मानता है; अथवा हे पांडव! दीपक के समान जो इस बात का भेद-भाव नहीं जानता, कि यह मेरा घर है इसलिये यहाँ प्रकाश करूँ और वह पराया घर है इसलिये वहाँ अँधेरा करूँ; बीज बोने वाले पर और पेड़ को काटने वाले पर भी वृक्ष जैसे समभाव से छाया करता है; इत्यादि[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ज्ञानेश्वर महाराज के ‘ज्ञानेश्वरी’ ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद श्रीयुत रघुनाथ माधव भगाड़े, बी. ए. सब जज, नागपुर ने किया है; और यह ग्रंथ उन्हीं से मिल सकता है।
  2. ज्ञा. 12.18

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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