गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
नवां प्रकरण
प्रत्यक्ष ऋग्वेद में भी कहा है कि ‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति”[1] -मूल में जो एक और नित्य (सत्) है, उसी को विप्र (ज्ञाता) भिन्न-भिन्न नाम देते हैं- अर्थात् एक ही सत्य वस्तु नाम-रूप से भिन्न-भिन्न देख पड़ती है। ‘एक रूप के अनेक रूप कर दिखलाने’ के अर्थ में, यह ‘माया’ शब्द ऋग्वेद में भी प्रयुक्त है और वहाँ यह वर्णन है कि, ‘इन्द्रो मायाभि: पुरुरूपः ईयते’ -इन्द्र अपनी माया से अनेक रूप धारण करता है[2]। तैतिरीय संहिता[3] में एक स्थान पर ‘माया’ शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया गया है और श्वेताश्वर उपनिषद् में इस ‘माया’ शब्द का नाम-रूप के लिये उपयोग हुआ है। जो हो; नाम-रूप के लिये ‘माया’ शब्द के प्रयोग किये जाने की रीति श्वेताश्वर उपनिषद के समय में भले ही चल निकली हो; पर इतना तो निर्विवाद है कि नाम-रूप के अनित्य अथवा असत्य होने की कल्पना इससे पहले की है, ‘माया’ शब्द का विपरीत अर्थ करके श्रीशंकराचार्य ने यह कल्पना नई नहीं चला दी है। नाम-रूपात्मक सृष्टि के स्वरूप को, जो श्रीशंकराचार्य के समान बेधड़क ‘मिथ्या’ कह देने की हिम्मत न कर सकें, अथवा जैसा गीता में भगवान् ने उसी अर्थ में ‘माया’ शब्द का उपयोग किया है, वैसा करने से जो हिचकते हों, वे चाहे तो खुशी से बृहदारण्यक उपनिषद के ‘सत्य’ और ‘अमृत’ शब्दों का उपयोग करें। कुछ भी क्यों न कहा जावे, पर इस सिद्धान्त में जरा सी भी चोट नहीं लगती कि नाम-रूप ‘विनाशवान’ हैं, और जो तत्त्व उनसे आच्छादित है वह ‘अमृत’ या ‘अविनाशी’ है एवं यह भेद प्राचीन वैदिक काल से चला आ रहा है। अपने आत्मा को नाम-रूपात्मक बाह्यसृष्टि के सारे पदार्थों का ज्ञान होने के लिये, ‘कुछ न कुछ’ एक ऐसा मूल नित्यद्रव्य होना चाहिये कि जो आत्मा को आधारभूत हो और उसी के मेल का हो, एवं बाह्य सृष्टि के नाना पदार्थों की जड़ में वर्तमान रहता हो; नहीं तो यह ज्ञान ही न होगा। किन्तु इतना ही निश्चय कर देने से अध्यात्मशास्त्र का काम समाप्त नहीं हो जाता। बाह्यसृष्टि के मूल में वर्तमान इस नित्य द्रव्य को ही वेदान्ती लोग ‘ब्रह्म’ कहते हैं; और अब हो सके, तो इस ब्रह्म के स्वरूप का निर्णय करना भी आवश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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