गीता रहस्य -तिलक पृ. 176

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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आठवां प्रकरण

ये दो हजार वर्ष और पहले बतलाये हुए सांख्य मतानुसार चारों युगों के दस हजार वर्ष मिला कर कुल बारह हजार वर्ष होते हैं। ये बारह हजार वर्ष मनुष्यों के हैं या देवताओं के? यदि मनुष्यों के माने जायँ, तो कलियुग का आरंभ हुए पाँच हजार वर्ष बीत चुकने के कारण, यह कहना पड़ेगा कि, हजार मानवी वर्षों का कलियुग पूरा हो चुका, उसके बाद फिर से आने वाला कृतयुग का भी समाप्त हो गया और हमने अब त्रेतायुग में प्रवेश किया है! यह विरोध मिटाने के लिये पुराणों में निश्चित किया है, कि ये बारह हजार वर्ष देवताओं के हैं। देवताओं के बार हजार वर्ष, मनुष्यों के 360×12000=43,20,000 ( तेतालीस लाख बीस हजार ) वर्ष होते हैं। वर्तमान पन्चागों का युग-परिमाण इसी पद्धति से निश्चित किया जाता है। ( देवतओं के ) बारह हजार वर्ष मिल कर मनुष्यों का एक महायुग या देवताओं का एक युग होता है। देवताओं के इकहत्तर युगों को एक मन्वंतर कहते हैं और आगे चल कर प्रत्येक मन्वंतर के अखिर में दोनों ओर कृतयुग की बराबरी के एक एक ऐसे 15 संधि-काल होते हैं। ये पंद्रह संधि-काल और चौदह मन्वंतर मिल कर देवताओं के एक हजार युग अथवा ब्रह्मदेव का एक दिन होता है[1]; और मनुस्मृति तथा महाभारत में लिखा है कि ऐसे ही हजार युग मिल कर ब्रह्मदेव की एक रात होती है[2]। इस गणना के अनुसार ब्रह्मदेव का एक दिन मनुष्यों के चार अब्ज बतीस करोड़ वर्ष के बराबर होता है; और इसी का नाम है कल्प[3]। भगवद्गीता[4]में कहा है कि, जब ब्रह्मदेव के इस दिन अर्थात कल्प का आरम्भ होता है तबः-

अव्यद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवंत्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयंते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।

‘‘अव्यक्त से सृष्टि के सब पदार्थ उत्पन्न होने लगते हैं; और जब ब्रह्मदेव की रात्रि आरंभ होती है तब सब व्यक्त पद्रार्थ पुनश्च अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।’’ स्मृतिग्रंथ और महाभारत में भी यही बतलाया है। इसके अतिरिक्त पुराणों में अन्य प्रलयों का भी वर्णन है। परन्तु इन प्रलयों में सूर्य-चंद्र आदि सारी सृष्टि का नाश नहीं हो जाता इसलिये ब्रह्मांड की उत्पत्ति और संहार का विवेचन करते समय इनका विचार नहीं किया जाता। कल्प, ब्रह्मदेव का एक दिन अथवा रात्रि है, और ऐसे 360 दिन तथा 360 रात्रियां मिल कर ब्रह्मदेव का एक वर्ष होता है। इसी पुराणादिकों [5] में यह वर्णन पाया जाता है कि ब्रह्मदेव की आयु उनके सौ वर्ष की है, उसमें से आधी बीत गई, शेष आयु के अर्थात इक्यावनवें वर्ष के पहले दिन का अथवा श्वेतवाराह नामक कल्प का अब आरंभ हुआ है; और, इस कल्प के चौदह मन्वंतरों में से छः मन्वंतर बीत चुके तथा सातवें अर्थात वैवस्वत मन्वंतर के 71 महायुगों में से 27 महायुग पूरे हो गये; एवं अब 28 वे महायुग के कलियुग का प्रथम चरण अर्थात चतुर्थ भाग जारी है।[6] इस प्रकार गणित करने से मालूम होगा कि, इस कलियुग का प्रलय होने के लिये संवत 1956 में मनुष्य के 3 लाख 91 हजार वर्ष शेष थे; फिर वर्तमान मन्वंतर के अन्त में अथवा वर्तमान कल्प के अन्त में होने वाले महाप्रलय की बात ही क्या! मानवी चार अब्ज बत्तीस करोड़ वर्ष का जो ब्रह्मदेव का दिन इस समय जारी है, उसका पूरा मध्यान्ह् भी नहीं हुआ अर्थात सात मन्वंतर भी अब तक नहीं बीते हैं!

सृष्टि की रचना और संहार का जो अब तक विवेचन किया गया वह वेदान्त के और परब्रह्म को छोड़ देने से सांख्यशास्त्र के तत्त्वज्ञान के आधार पर किया गया है इसलिये सृष्टि के उत्पत्ति क्रम की इसी परम्परा को हमारे शास्त्रकार सदैव प्रमाण मानते हैं, और यही क्रम भगवद्गीता में भी दिया हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सूर्यसिद्धान्त 1. 15-20
  2. मनु. 1. 69-73 और 79, मभा. शां. 231. 18-31; और यास्क का निरूक्त 14. 9देखो
  3. ज्योतिःशास्त्र के आधार पर युगादि-गणना का विचार स्वर्गीय शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने अपने ‘भारतीय ज्योतिःशास्त्र’ नामक ग्रंथ में किया है, पृ. 103-105; 193 इ.देखो।
  4. 8.18 और 9.7
  5. विष्णुपुरारण 1.3 देखो
  6. संवत 1956 शक 1821 में इस कलियुग के ठीक 5000 वर्ष बीत चुके।

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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