गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा मन पर जो संस्कार होते हैं उन्हें प्रथम एकत्र करके और उनकी परस्पर तुलना करके इस बात का निर्णय करना पड़ता है कि, उनमें से अच्छे कौन से हैं और बुरे कौन से हैं, ग्राह्य अथवा त्याज्य कौन से हैं, और लाभदायक तथा हानिकारक कौन से हैं। यह निर्णय हो जाने पर उनमें से जो बात अच्छी, ग्राह्य, लाभदायक, उचित अथवा करने योग्य होती हैं उसे करने में हम प्रवृत हुआ करते हैं। यही सामान्य मानसिक व्यवहार है। उदाहरणार्थ, जब हम किसी बगीचे में जाते हैं तब, आंख और नाक के द्वारा, बाग के वृक्षों और फूलों के संस्कार हमारे मन पर होते हैं। परन्तु जब तक हमारे आत्मा को यह ज्ञान नहीं होता कि, इन फूलों में से किसकी सुगंध अच्छी और किसकी बुरी है, तब तक किसी फूल को प्राप्त कर लेने की इच्छा मन में उत्पन्न नहीं होती और न हम उसे तोड़ने का उद्योग ही करते हैं। अतएव सब मनोव्यापारों के तीन स्थूल भाग हो सकते हैः- 1. ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा बाह्य पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके उन संस्कारों को तुलना के लिये व्यवस्थापूर्वक रखना; 2. ऐसी व्यवस्था हो जाने पर उनके अच्छेपन या बुरेपन का सार-असार विचार करके यह निश्चय करना कि कौन सी बात ग्राह्य है और कौन सी त्याज्य; और 3. निश्चय हो चुकने पर, ग्राह्य वस्तु को प्राप्त कर लेने की और अग्राह्य को त्यागने की इच्छा उत्पन्न हो कर उसके अनुसार प्रवृति होती है। इस बात की आवश्यकता नहीं कि, ये तीनों व्यापार बिना रुकावट के लगातार एक के बाद एक होते रहें। सम्भव है कि पहले किसी समय देखी हुई वस्तु की इच्छा आज हो जाये; किन्तु इतने ही से यह नहीं कह सकते कि उक्त तीनों क्रियाओं में से किसी भी क्रिया की आवश्यकता नहीं है। यद्यपि न्याय करने की कचहरी एक ही होती है, तथापि उसमें काम का विभाग इस प्रकार किया जाता हैः- पहले वादी और प्रतिवादी अथवा उनके वकील अपनी अपनी गवाहियां और सुबूत न्यायाधीश के सामने पेश करते हैं, इसके बाद न्यायाधीश दोनों पक्षों के सुबूत देखकर निर्णय स्थिर करता है, और अंत में न्यायाधीश के निर्णय के अनुसार नाज़िर काररवाई करता है। ठीक इसी प्रकार, जिस मुंशी को अभी तक हम सामान्यतः ‘मन’ कहते आये हैं, उसके व्यापारों के भी विभाग हुआ करते हैं। इनमें से, सामने उपस्थित बातों का सार-असार-विचार करके यह निश्चय करने का काम (अर्थात केवल न्यायाधीश का काम) ‘बुद्धि’ नामक इन्द्रिय का है, कि कोई एक बात अमुक प्रकार ही की (एवमेव) है, दूसरे प्रकार की नहीं (नाअन्यथा)। ऊपर कहे गये सब मनोव्यापारों में से इस सार-असार-विवेकशक्ति को अलग कर देने पर सिर्फ बचे हुए व्यापार ही जिस इन्द्रिय के द्वारा हुआ करते हैं, उसी को सांख्य और वेदान्तशास्त्र में ‘मन’ कहते हैं [1]। यही मन वकील के सदृश, कोई बात ऐसी है (संकल्प), अथवा उस के उलटा वैसी है (विकल्प), इत्यादि कल्पनाओं को बुद्धि के सामने निर्णय करने के लिये पेश किया करता है। इसीलिये इसे ‘संकल्प-विकल्पात्मक’ अर्थात बिना निश्चय किये केवल कल्पना करने वाली इन्द्रिय कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सां. का. 23 और 27 देखो
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