गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
छठवाँ प्रकरण
यत्कर्म कुर्वतोअस्य स्यात् परितोषोअन्तरात्मनः । तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत् ।।
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्वर्मस्य लक्षणम् ।। “वेद, स्मृति, शिष्टाचार और अपने आत्मा को प्रिय मालूम होना- ये धर्म के चार मूलतत्त्व है’’ [1]।’’ अपने आत्मा को जो प्रिय मालूम हो’’ इस का अर्थ यही है कि मन को जो शुद्ध मालूम हो। इससे स्पष्ट होता है कि जब श्रुति, स्मृति और सदाचार से किसी कार्य की धर्मता या अधर्मता का निर्णय नहीं हो सकता था, तब निर्णय करने का चैथा साधन ‘मनःपूतता’ समझी जाती थी। पिछले प्रकरण मे कही गई प्रह्लाद और इन्द्र की कथा बतला चुकने पर, ‘शील’ के लक्षण के विषय में, धृतराष्ट्र ने महाभारत में, यह कहा हैः- यदन्येषा हितं न स्यात् आत्मनः कर्म पौरूषम् । अपत्रपेत वा येन न तत्कुर्यात् कथंचन ।। अर्थात् “हमारे जिस कर्म से लोगों का हित नहीं हो सकता, अथवा जिसके करने में स्वयं अपने ही को लज्जा मालूम होती है, वह कभी नहीं करना चाहिये’’ [2]। पाठकों के ध्यान में यह बात आ जायगी कि ‘लोगों का हित हो नहीं सकता’ और ‘लज्जा मालूम होती है’ इन दो पदों से ‘अधिकांश लोगों का अधिक हित’ और ‘मनोदेवता’ इन दोनों पक्षों का इस श्लोक में एक साथ उल्लेख किया गया है मनुस्मृति [3] में भी कहा गया है कि, जिस कर्म के करने मे लज्जा मालूम होती है वह तामस है, और जिसके करने में लज्जा मालूम नहीं होती एवं अंतरात्मा संतुष्ट होता है वह सात्त्विक है। धम्मपद नामक बौद्धग्रंथ [4] में भी इसी प्रकार के विचार पाये जाते हैं कालिदास भी यही कहते हैं, कि जब कर्म-अकर्म का निर्णय करने में कुछ संदेह हो तब- सतां हि संदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तः करणप्रवृत्तयः ।। “सत्पुरुष लोग अपने अन्तःकरण ही की गवाही को प्रमाण मानते हैं’’[5]। पातंजल योग इसी बात की शिक्षा देता है कि चितवृत्तियों का निरोध करके मन को किसी एक ही विषय पर कैसे स्थिर करना चाहिये; और यह योगशास्त्र हमारे यहाँ बहुत प्राचीन समय से प्रचलित है; अतएव जब कभी कर्म-अकर्म के विषय में कुछ संदेह उत्पन्न हो तब, हम लोगों को किसी से यह सिखाये जाने की आवश्यकता नहीं है, कि ‘अन्तःकरण को स्वस्थ और शांत करने से जो उचित मालूम हो, वही करना चाहिये।’ सब स्मृति-ग्रंथों के आरम्भ में, इस प्रकार के वर्णन मिलते हैं कि, स्मृतिकार ऋषि अपने मन को एकाग्र करके ही धर्म-अधर्म बतलाया करते थे [6]। एक बार देखने से तो, ‘किसी काम में मन की गवाही लेना’ यह मार्ग अत्यंत सुलभ प्रतीत होता है। परन्तु जब हम तत्त्वज्ञान की दृष्टि से इस बात का सूक्ष्म विचार करने लगते हैं कि ‘शुद्ध मन’ किसे कहना चाहिये तब यह सरल पंथ अंत तक काम नहीं दे सकता; और यही कारण है कि हमारे शास्त्रकारों ने कर्मयोगशास्त्र की इमारत इस कच्ची नींव पर खड़ी नहीं की है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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