गीता रहस्य -तिलक पृ. 108

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पाँचवां प्रकरण

तथापि, जब इन्द्र का राज्य छिन गया और प्रह्लाद को त्रैलोक्य का आधिपत्य मिला तब उस ने देवगुरु बृहस्पति से पूछा कि “मुझे बतलाइये कि श्रेय किस में है’’ तब बृहस्पति ने राज्यभ्रष्ट इन्द्र को ब्रह्मविद्या अर्थात आत्मज्ञान का उपदेश करके कहा कि “श्रेय इसी में है’’-एतावच्छेय इति- परन्तु इससे इन्द्र का समाधान नहीं हुआ। उसने फिर प्रश्‍न किया “क्या और भी कुछ अधिक है?’’- को विशेषो भवेत? तब बृहस्पति ने उसे शुक्राचार्य के पास भेजा। वहाँ भी वही हाल हुआ और शुक्राचार्य ने कहा कि “प्रह्लाद को वह विशेषता मालूम है।’’ तब अन्त में इन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण करके प्रह्लाद का शिष्य बन कर सेवा करने लगा। एक दिन प्रह्लाद ने उससे कहा कि शील (सत्य तथा धर्म से चलने का स्वभाव) ही त्रैलोक्य का राज्य पाने की कुंजी है और यही श्रेय है। अनंतर, जब प्रह्लाद ने कहा कि मैं तेरी सेवा से प्रसन्न हूँ तू वर मांग, तब ब्राहाण- वेशधारी इन्द्र ने यही वर मांगा कि “आप अपना शील मुझे दे दीजिये।’’

प्रह्लाद के ‘तथास्तु’ कहते ही उसके ‘शील’ के साथ धर्म, सत्य, वृत, श्री अथवा ऐश्वर्य आदि सब देवता उसके शरीर से निकल कर इन्द्र के शरीर में घुस गये। फलतः इन्द्र अपना राज्य पा गया। यह प्राचीन कथा भीष्म ने युधिष्ठिर से महाभारत के शान्तिपर्व (124) में कही है। इस सुन्दर कथा से हमें यह बात साफ मालूम हो जाती है, कि केवल ऐश्वर्य की अपेक्षा केवल आत्मज्ञान की योग्यता भले ही अधिक हो, परन्तु जिसे इस संसार में रहना है उसको अन्य लोगों के समान ही स्वयं अपने लिये तथा अपने देश के लिये ऐहिक समृद्धि प्राप्त कर लेने की आवश्यकता और नैतिक हक भी है; इसलिये जब यह प्रश्न उठे कि इस संसार में मनुष्य का सर्वोत्‍तम ध्येय या परम उद्देश क्या है, तो हमारे कर्मयोगशास्त्र में अन्तिम उत्‍तर यही मिलता है कि शांति और पुष्टि, प्रेय और श्रेय अथवा ज्ञान और ऐश्वर्य दोनों को एक साथ प्राप्त करो। सोचने की बात है, कि जिन भगवान से बढ़कर संसार में कोई श्रेष्ठ नहीं, और जिनके दिखलाये हुए मार्ग में अन्य सभी लोग चलते हैं (गी. 3.23), उन भगवान ने ही क्या ऐश्वर्य और सम्पत्ति को छोड़ दिया है?

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः ।

ज्ञानवैराग्ययोश्चैव शण्णां भग इतीरणा ।।

अर्थात “समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, संपति, ज्ञान और वैराग्य- इन छः बातों को ‘भग’ कहते हैं’’ भग शब्द की ऐसी व्याख्या पुराणों में है [1]। कुछ लोग इस श्लोक के ऐश्वर्य शब्द का अर्थ योगैश्वर्य किया करते हैं, क्योंकि श्री अर्थात संपत्तिसूचक शब्द आगे आया है। परन्तु व्यवहार में ऐश्वर्य शब्द में सता, यश और संपति का तथा ज्ञान में वैराग्य और धर्म का समावेश हुआ करता है, इससे हम बिना किसी बाधा के कह सकते हैं कि लौकिक दृष्टि से उक्त श्लोक का सब अर्थ ज्ञान और ऐश्वर्य इन्हीं दो शब्दों से व्यक्त हो जाता है। और जबकि स्वयं भगवान ने ही ज्ञान और ऐश्वर्य को अंगीकार किया है, तब हमें भी अवश्य करना चाहिये [2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विष्णु. 6.5.74
  2. गी. 3.21; महा.शा. 341.25

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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