गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पाँचवां प्रकरण
केवल दुःखकारी आशाओं को ही छोड़ने और स्वधर्मानुसार कर्म करने की इस युक्ति या कौशल को ही योग अथवा कर्मयोग कहते हैं [1]; और यही गीता का मुख्यतः प्रतिपाद्य विषय है, इसलिये यहाँ थोड़ा सा इस बात का और विचार कर लेना चाहिये कि गीता में किस प्रकार की आशा को दुःखकारी कहा है। मनुष्य कान से सुनता है, त्वचा से स्पर्श करता है, आंखों से देखता है, जिह्वा से स्वाद लेता है तथा नाक से सूंघता है। इंद्रियों के ये व्यापार जिस परिमाण से इन्द्रियों की स्वाभाविक वृतियों के अनुकूल या प्रतिकूल होते है; उसी परिमाण से मनुष्य को सुख अथवा दुःख हुआ करता है। सुख-दुःख के वस्तुस्वरूप के लक्षण का यह वर्णन पहले हो चुका है; परन्तु, सुख- दुःखों का विचार केवल इसी व्याख्या से पूरा नहीं हो जाता। आधिभौतिक सुख-दुःखों के उत्पन्न होने के लिये बाह्य पदार्थो का संयोग इन्द्रियों के साथ होना यद्यपि प्रथमतः आवश्यक है; तथापि इसका विचार करने पर, कि आगे इन सुख-दुःखों का अनुभव मनुष्य को किस रीति से होता है, यह मालूम होगा कि इन्द्रियों के स्वाभाविक व्यापार से उत्पन्न होने वाले इन सुख-दुःखों को जानने का (अर्थात इन्हें अपने लिये स्वीकार या अस्वीकार करने का) काम हर एक मनुष्य अपने मन के अनुसार ही किया करता है। महाभारत में कहा है कि “चक्षु:पश्यति रूपाणि मनसा न तु चक्षुषा’’[2] अर्थात देखने का काम केवल आंखों से ही नहीं होता, किन्तु उसमें मन की भी सहायता अवश्य होती है, और यदि मन व्याकुल रहता है तो आंखों से देखने पर भी अनदेखा सा हो जाता है। बृहदारणयकोपनिषद [3] में भी यह वर्णन पाया जाता है, यथा (अन्यत्रमना अभूवं नादर्शम)’’ मेरा मन दूसरी ओर लगा था इसलिये मुझे नहीं देख पड़ा, और अन्यत्रमना अभुवं नाश्रौषम् मेरा मन दूसरी ही ओर था इसलिये मैं सुन नहीं सका’’ इससे यह स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है कि आधिभौतिक सुख-दुःखों का अनुभव होने के लिये इन्द्रियों के साथ मन की भी सहायता होनी चाहिये; और आध्यात्मिक सुख- दुःख तो मानसिक होते ही हैं। सारांश यह है, कि सब प्रकार के सुख-दुःखों का अनुभव अन्त में हमारे पर ही अवलम्बित रहता है; और यदि यह बात सच है, तो यह भी आप ही आप सिद्ध हो जाता है कि मनोविग्रह से सुख-दुःखों के अनुभव का भी निग्रह अर्थात् दमन करना कुछ असम्भव नहीं है। इसी बात पर ध्यान रखते हुए मनुजी ने सुख-दुःखों का लक्षण नैय्यायिकों के लक्षण से भिन्न प्रकार का बतलाया है। उनका कथन है किः- सर्वे परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् । एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदु:खयोः ।। अर्थात“जो दूसरों की (बाह्य वस्तुओं की) अधीनता में है वह सब दुःख है, और जो अपने (मन के) अधिकार में है वह सुख है। यही सुख-दुःख का संक्षिप्त लक्षण है’’[4]। नैय्यायिकों के बतलाये हुए लक्षण के ‘वेदना’ शब्द में शारीरिक और मानसिक दोनों वेदनाओं का समावेश होता है और उससे सुख-दुःख का बाह्य वस्तु स्वरूप भी मालूम हो जाता है; और मनु का विशेषध्यान सुख-दुःखों के केवल आन्तरिक अनुभव पर है; बस, इस बात को ध्यान में रखने से सुख-दुःख के उक्त दोनों लक्षणों में कुछ विरोध नहीं देख पड़ेगा। इस प्रकार जब सुख-दुःखों के अनुभव के लिये इन्द्रियों का अवलम्ब अनावश्यक हो गया, तब तो यही कहना चाहिये किः-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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