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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
चतुर्दश अध्यायब्रह्माणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । तो ब्रह्म की प्रतिष्ठा कौन है? अहं है। नहीं, श्रीकृष्ण का प्रत्यक् चैतन्य है, अमृत की भी प्रतिष्ठा वही है, अव्यय की भी प्रतिष्ठा वही है, शास्वत धर्म की प्रतिष्ठा भी वही है और ऐकान्तिक सुख की प्रतिष्ठा भी वही है- यह सब इसी में रहते हैं। अच्छा, अब एक और बात सुनाता हूँ। वह क्या है? मैंने पहले ईश्वर-कृपा से मधुसूदनी लेकर गीता का यह चौदहवाँ अध्याय बड़े जोर-शोर से घोंटा था। जैसे प्रथमा का विद्यार्थी लघुकौमुदी के सूत्रों को घोंटता है, वैसे ही मैंने घोंटा था। मैंने इनमें से एक चीज खोज निकाली। आजकल के जो अंग्रेजी दां लोग होते हैं वे जब थीसिस लिखते हैं तब कोई न कोई नयी बात न निकालें तो उनकी थीसिस कैसे बने और डाक्टरेट डिग्री कैसे मिले? इसलिए मैंने यह चीज खोज निकाली कि चौदहवें अध्याय में जो ब्रह्म शब्द है, यह पूर्ण तत्व का वाचक कभी भी नहीं है। जहाँ यह कहा है कि ‘मम योनिर्महद् ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधाम्यहम्’- वहाँ ब्रह्म महद् ब्रह्म है और जहाँ यह कहा है कि ‘तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता’- वहाँ भी ब्रह्म प्रकृति का- महद् ब्रह्म का ही वाचक है। फिर जहाँ ‘ब्रह्मभूयाय कल्पते’- कहा है, वहाँ भी ‘ब्रह्म भवनाय प्रत्यग्-अधिष्ठानाय’- ब्रह्म शब्द का अर्थ महद्ब्रह्म ही है। जिस महद्ब्रह्म से उपक्रम किया, उसके अधिष्ठान रूप से वह हो जाता है। तब फिर ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ का अर्थ भी ऐसे ही करना चाहिए कि यह जो ह्रास- वृद्धि को प्राप्त होने वाली, संकोच विस्तार को प्राप्त होने वाली प्रकृति है, वह मोर की पाँख की तरह कभी फैल जाती है और कभी सिमट जाती है। मोर कानाम बर्ह है और ब्रह्म की तरह उसका भी धातु है ‘बृहं’। इसलिए यह जो सिमटने- फैलाने वाली प्रकृति है, ब्रह्म इसकी प्रतिष्ठा है माने निर्विकार निर्विशेष, निर्धर्मक चैतन्य मैं हूँ। इसलिए ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ का ऐसा ही अरथ होन चाहिए। फिर देखा तो इस अर्थ की ओर टीकाकारों का भी ध्यान है। एक टीकाकार ने तो ‘ब्रह्माणो हि प्रतिष्ठाहम्’ का अर्थ किया है कि ‘ब्रह्मणो वेदस्य अहं प्रतिष्ठा’। ब्रह्म माने वेद और मैं वेद की प्रतिष्ठा हूँ अर्थात् वेद का परम तात्पर्य मैं ही हूँ और वेदों की परिसमाप्ति भी मुझमें ही होती है। यह मत समझना कि वेदों की परिसमाप्ति तो ईश्वर-कृपा से रोज-रोज हो जाती है। यह मत समझना कि वेदों की परिसमाप्ति तो ईश्वर-कृपा से रोज-रोज हो जाती है। कब होती है? जब ‘प्रमाता अप्रमाता भवति। पिता अपिता भवति। देवा अदेवा भवन्ति। वेदा अवेदा भवन्ति’ सुषुप्ति दशा में वेद अवेद हो जाते हैं। तब फिर सृष्टिकाल में वेद का उद्भासक और प्रलयकाल में वेद के निर्वाण का स्थान प्रतिष्ठा रूप से यह परमात्मा ही है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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