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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में भक्ति योग
इससे यह सिद्धान्त नहीं निकलना चाहिये कि अव्यक्तोपासना का दर्जा नीचा है या उसकी उपासना में आचरणों की कोई खास भिन्नता है। अव्यक्तोपासना का अधिकार बहुत ही ऊँचा है। विरक्त, धीर, वीर और सर्वथा संयमी पुरुष पुगव ही इस कण्टकाकीर्ण मार्ग पर पैर रख सकते हैं। उपासना में भी दो-एक बातों को छोड़कर प्रायः सादृश्यता ही है। व्यक्तोपासक के लिये ‘सर्वभूतेषु निर्वैरः’ की और ‘मैत्रः करुणः’ की शर्त है तो अव्यक्तोपासक के लिये ‘सर्वभूतहिते रताः’ की है। उसके लिये भगवान् में मन को एकाग्र करना आवश्यक है, तो इसके लिये भी समस्त ‘इन्द्रियग्राम’ को भली भाँति वश में करना जरूरी है। वह अपने उपास्य में ‘परम श्रद्धावान्’ है तो यह भी सर्वत्र ब्रह्म दर्शन में ‘समबुद्धि’ है। वास्तव में भगवान् का क्या स्वरूप है और उनकी दिव्य वाणी श्रीगीता के श्लोकों का क्या मर्म है, इस बात को यथार्थतः भगवान् ही जानते हैं अथवा जो महात्मा भगवत्कृपा का अनुभव कर चुके हैं वे कुछ जान सकते हैं। मुझ-सरीखा विषयरत प्राणी इन विषयों में क्या जाने? मैंने यहाँ पर जो कुछ लिखा है सो असल में पूज्य महात्मा पुरुषों का जूठन-प्रसाद ही है। जिन प्राचीन या अर्वाचीन महात्माओं का मत इस मत से भिन्न है, वे सभी मेरे लिये तो उसी भाव से पूज्य और आदरणीय हैं। मैंने उनकी वाणी का अनादर करने के अभिप्राय से एक अक्षर भी नहीं लिखा है। अवश्य ही मुझे यह मत प्यारा लगता है, सम्भव है इसमें मेरी रुचि और इस ओर की आसक्ति ही खास कारण हो। मैं तो सब संतों का दासानुदास और उनकी चरण रज का भिखारी हूँ! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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