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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गीता में भक्ति योग
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ॥47॥ [1] ‘समस्त योगियों में भी जो श्रद्धालु योगी मुझमें लगाये हुए अन्तरात्मा से निरन्तर मुझे भजता है वही मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ है। इस श्लोक में आये हुए ‘श्रद्धावान्’ और ‘मद्गतेनान्तरात्मना’ के भाव ही द्वादश अध्याय के दूसरे श्लोक में ‘श्रद्धया परयोपेताः’ और मय्यावेश्य मनः’ में व्यक्त हुए हैं। ‘युक्तम’ शब्द तो दोनों में एक ही है। व्यक्तोपासना में भजन का अभ्यास, भगवान् के साकार-निराकार तत्व का ज्ञान, उपास्य इष्ट का ध्यान और उसी के लिये सर्वकर्माें का आचरण और उसी में सर्वकर्म फल का संन्यास रहता है। व्यक्तोपासक अपने उपास्य की सेवा को छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहता। इसी से अभ्यास, ज्ञान और ध्यान से युक्त रहकर सर्वकर्म फल का-मोक्ष का परमात्मा के लिये त्याग करते ही उसे परम शान्ति, परमात्मा के परम पद का अधिकार मिल जाता है। यही भाव 12 वें श्लोक में व्यक्त किया गया है- श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ञानाद्धयानं विशिष्यते। ‘रहस्य ज्ञान रहित अभ्यास से परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है, उससे परमात्मा का ध्यान श्रेष्ठ है और जिस सर्व कर्म फल त्याग में अभ्यास, ज्ञान और ध्यान तीनों रहते हैं वह सर्वश्रेष्ठ है, उस त्याग के अनन्तर ही परम शान्ति मिल जाती है।’ इसके बीच 8 से 11 तक के चार श्लोकों में-ध्यान, अभ्यास, भगवदर्थ कर्म और भगवत्प्राप्ति रूप योग का आश्रय लेकर कर्म फल-त्याग- ये चार साधन बतलाये गये हैं; जो जिसका अधिकारी हो वह उसी को ग्रहण करे। इनमें छोटा-बड़ा समझने की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ, जिसमें चारों हों वह सर्वोत्तम है, वही परम भक्त है। ऐसे भक्त को जब परम सिद्धि मिल जाती है तब उसमें जिन सब लक्षणों का प्रादुर्भाव होता है उन्हीं का वर्णन अध्याय की समाप्ति तक के अगले आठ श्लोकों में है। वे लक्षण सिद्ध भक्त में स्वाभाविक होते हैं और साधक के लिये आदर्श हैं। यही गीतोक्त व्यक्तोपासना का रहस्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (गीता 6/47)
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