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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अष्टादश अध्याय
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो: । जो पुरुष इस हम दोनों के संवाद रूप धर्ममय गीताशास्त्र का अध्ययन करेगा-पढे़गा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा-ऐसा मेरा मत है। जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोष दृष्टि से रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापों से मुक्त होकर पुण्य करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा। मोह-नाश के सम्बन्ध में अर्जुन से भगवान् का प्रश्न और अर्जुन की स्वीकृति पार्थ! क्या इस (मेरे उपदेश)-को तूने एकाग्रचित्त से सुना, और धनंजय! उसे सुनकर क्या तेरा अज्ञान जनित मोह नष्ट हो गया? । अर्जुन बोले-अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपके वचनों का पालन करूगा[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्जुन के द्वारा इस श्लोक में शरणागति की स्वीकृति तथा प्रकारान्तर से शरणागति के स्वरूप का उल्लेख है। अर्जुन कहते हैं-‘मेरे मोह का नाश हो गया’ मैं जो अहंकारवश कर रहा था कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’-यह मोह था, अब मुझे स्मरण हो आया कि मैं तो आप यन्त्री के हाथ का यन्त्र हूँ, आपकी स्वच्छन्द इच्छा के अनुसार चलने वाला। पर यह मोह-नाश तथा स्मृति की प्राप्ति मेरे पुरुषार्थ या किसी साधन विशेष से नहीं हुई। यह तो केवल आप शरणागत वत्सल की कृपा से हुई है और इस कृपा की भी मैंने अपने साधन से उपलब्धि नहीं की। अच्युत! आप अपने शरणागत भयहारी विदर से कभी च्युत नहीं होते, अतः स्वाभाविक ही कृपा-वर्षा करते हैं। अब मैं अपने यन्त्र रूपी स्वरूप में स्थित हो गया हूँ। मेरे सारे शंका-संदेह नष्ट हो गये हैं। अतः आप जो कुछ मुझसे कहेंगे बिना ननु-नचके वही करूँगा।’
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