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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
अष्टादश अध्याय
महाबाहो! कर्मों का अन्त करने का उपाय बतलाने वाले सांख्य शास्त्र में कहे गये सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये पाँच हेतु तू मुझसे सुन। इस विषय में (कर्मों की सिद्धि में) ‘अधिष्ठान्’(शरीर), ‘कर्ता’ (कर्तृत्वाभिमानी प्रकृतिस्थ पुरुष जीवात्मा) भिन्न-भिन्न प्रकार के ‘करण’ (इन्द्रियाँ) नाना प्रकार की पृथक्-पृथक् चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु ‘दैव’ है। मनुष्य मन, वाणी और शरीर के द्वारा शास्त्र के अनुकूल अथवा विपरीत (शास्त्र विरुद्ध) जो कुछ भी कर्म करता है, उसके ये पाँच ही हेतु हैं। ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध-बुद्धि होने के कारण इस विषय में (कर्मों के होने में) केवल शुद्ध-स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता। जिसके अन्तःकरण में ‘मैं कर्ता हूँ’-ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि (सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में) कहीं लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न बन्धन को ही प्राप्त होता है। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय-यह तीन प्रकार की कर्म प्रेरणा है और कर्ता, करण तथा क्रिया-यह तीन प्रकार का कर्म संग्रह है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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