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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
सप्तदश अध्याय
‘ऊँ, तत्, सत्’-ऐसे तीन प्रकार का सच्चिदानन्द घन ब्रह्म का नाम बतलाया गया है; उसी ब्रह्म से सृष्टि के आदिकाल में ब्रह्मण, वेद तथा यज्ञादि रचे गये हैं;। अतएव वेदमन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ऊँ’ इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ हुआ करती हैं। ‘तत्’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तप तथा दानरूप क्रियाएँ मोक्ष की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं। सत्-इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा पार्थ! उत्तम कर्म में भी ‘सत्’ शब्द का प्रयोग होता है। यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’ इस नाम से कही जाती है और उस परमात्मा के लिये किया हुआ कर्म निश्चय पूर्वक ‘सत्’-ऐसा कहा जाता है। अर्जुन! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म होता है, वह सब ‘असत्’-इस प्रकार कहा जाता है, वह न तो मरने के बाद ही और न इस लोक में ही लाभदायक होता है। श्रीमद् भगवद्गीता-‘श्रद्धात्रय विभागयोग’ नामक सप्तदश अध्याय |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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