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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
त्रयोदश अध्याय
यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि: । क्योंकि जो पुरुष सब में समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, तभी वह परमगति को प्राप्त होता है।। 28।। जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही (यथार्थ) देखता है।। 29।। जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक्-पृथक् भाव को एक (परमात्मा)-में ही स्थित तथा उस (परमात्मा)-से ही सम्पूर्ण भूतों के विस्तार को देखता है, उसी क्षण वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।। 30।। कुन्ती पुत्र अर्जुन! अनादि और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता है और लिप्त ही होता है।। 31।। जैसे सर्वत्र व्याप्त आकाश्ज्ञ सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह मेंसर्वत्र स्थित आत्मा (निर्गुण होने के कारण देह के गुणों से) लिप्त नहीं होता।। 32।। अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।। 33।। इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा कार्य सहित प्रकृति से मुक्त होने को जो पुरुष ज्ञान नेत्रों के द्वारा तत्व से जान लेते हैं, वे परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।। 34।। श्रीमद् भगवद्गीता-‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग’ नामक त्रयोदश अध्याय |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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