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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रथम अध्यायअहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। यद्यपि लोभ के कारण जिनकी विचार शक्ति नष्ट हो गयी है, ऐसे ये लोग कुल-नाशजनित दोष को और मित्र-द्रोह से उत्पन्न पाप को नहीं देख पा रहे हैं; परंतु जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पास से बचने का उपाय क्यों नहीं सोचना चाहिये? कुल का नाश होने पर सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म सब ओर से छा जाता है। श्रीकृष्ण! अधर्म छा जाने पर कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण संकर उत्पन्न होता है। वह वर्ण संकर कुलघातियों ओर कुल को नरक में ले जाने वाला होता है। कुल में पिण्ड और जल दान की क्रिया (श्राद्ध-तर्पण के) लुप्त हो जाने पर इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त हो जाते हैं। कुलघातियों के इन वर्णसंकर कारक दोषों से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल के लिये नरक में निवास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। अहो! बड़े शोक की बात है, हम लोगों ने बुद्धिमान् होकर भी बहुत बड़ा पाप करने का निश्चय कर लिया है, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों का संहार करने के लिये उद्यत हो गये हैं, यदि मुझ सामना न करने वाले शस्त्र रहित को शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें, तो वह भी मेरे लिये विशेष कल्याण कारक होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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