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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
दशम अध्याय
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। श्रीभगवान् बोले- महाबाहो! फिर तू मेरे श्रेष्ठ (परम रहस्य और प्रभाव युक्त) वचन को सुन, जो मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिये तेरे हित की कामना से कहूँगा। लीला से ही मेरे प्रकट होने को (अथवा मेरे प्रभाव को) न देवतागण जानते हैं और न महर्षिजन ही; क्योंकि मैं देवताओं का और महर्षियों का भी सब प्रकार से आदिकारण हूँ। जो मुझ (पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण)-को अजन्मा, अनादि और लोकों का महान् ईश्वर जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। बुद्धि, ज्ञान, मोह हीनता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में करना, मन का निग्रह, सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति और अकीर्ति प्राणियों के ये नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं। सात महर्षि, उनसे भी पूर्व होने वाले चार सनकादि तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु- ये मुझमें भाव वाले सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं, जिनकी संसार में उत्पन्न यह सारी प्रजा है। जो पुरुष मेरी इस परमैश्वर्यरूप विभूति को और योग शक्ति को तत्व से जानता है, वह निश्चल भक्ति योग से युक्त हो जाता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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