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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
नवम अध्याय
जो कोई भी भक्त मेरे लिये प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल अर्पण करता है, उस शुद्ध-बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं स्वयं प्रीति सहित खाता हूँ। अर्जुन! तू जो कुछ करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर। (इस प्रकार जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान् के अर्पण होते हैं) ऐसे संन्यास (समर्पण)-योग से युक्त चित्त वाला तू शुभाशुभ फलस्वरूप कर्म बन्धन से मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा। मैं सब भूतों में सम हूँ न कोई मेरा द्वेष का पात्र है और न प्रिय है; परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ। यदि कोई अतिशय दुराचारी भी मेरा अनन्य भक्त होकर मुझको भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। कुन्तीपुत्र अर्जुन! तू निश्चय पूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता (उसका अपनी स्थिति से कभी पतन नहीं होता)। अर्जुन! मेरे शरण होने पर स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि (चाण्डालादि) कोई भी हों, वे सब परम गति को ही प्राप्त होते हैं। फिर जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्त हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। इसलिये तू इस सुखरहित और क्षणभंगुर मनुष्य-शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।[1] मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको नमस्कार कर। इस प्रकार अपने को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा (भगवान् की प्रत्यक्ष सेवा का यह परम साधन ‘गुह्यतम’ है। इसी को आगे चलकर 18 वें अध्याय के अन्त में और भी विशद तथा स्पष्ट रूप से ‘सर्वगुह्यतम’ नाम से कहा गया है)।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान् ही परम गति हैं, वे ही एकमात्र भर्ता और स्वामी हैं, वे परम आश्रय और परम आत्मीय संरक्षक हैं-ऐसा मानकर उन्हीं पर निर्भर हो जाना, उनके प्रत्येक विधान में सदा ही संतुष्ट रहना, उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करना, उनके नाम-रूप-गुण-प्रभाव-लीला आदि के श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि में अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को नित्य निमग्न रखना और उन्हीं की प्रीति के लिये प्रत्येक कार्य करना-इसी का नाम ‘भगवान् का भक्त बनना’है।
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