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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
नवम अध्याय
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च। तीनों वेदों में विधान किये हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोमरस पीने वाले, पाप रहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं; वे पुरुष अपने पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं। वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधन रूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं (पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं)। किन्तु जो अनन्य प्रेमी भक्तजन निरन्तर चिन्तन करते हुए मुझे निष्काम भाव से भजते हैं, उन नित्ययुक्त (नित्य-निरन्तर भजन-परायण रहने वाले) पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ (उनके लिये अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त के सरंक्षण का सारा भार मैं ही वहन करता हूँ)। अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे (मेरे ही अंगरूप) देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं; किंतु उनका वह पूजन अविधि पूर्वक (अज्ञानपूर्वक) है। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परंतु वे मुझ परमेश्वर को तत्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है (वे पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं )। देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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