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गीता चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
नवम अध्याय
मेरे परमभाव नित्य सच्चिदानन्द विग्रह भगवत्स्वरूप को न जानने वाले मूढ़लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ-साधारण मनुष्य समझते हैं। वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्ति चित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी (क्रोध, लोभ और कामरूप) प्रकृति को ही धारण किये रहते हैं। परंतु कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का आदि और अविनाशी कारण जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरन्तर भजते हैं। वे दृढ़ निश्चय वाले भक्त जन निरन्तर मेरा (मेरे नाम, लीला एवं गुणों का) कीर्तन करते हुए तथा भलीभाँति यत्न करते हुए और मुझको बार-बार नमस्कार करते हुए, मुझसे जुड़े रहकर भक्ति से (अनन्य प्रेम से) मेरी उपासना करते हैं। दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्म का ज्ञान यज्ञ के द्वारा अभिन्न भाव से पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त मुझ विराट् स्वरूप परमेश्वर की पृथक् भाव से उपासना करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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