गीता रहस्य -तिलक पृ. 10

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पहला प्रकरण

अब देखना चाहिये कि गीता के भाष्यकारों और टीकाकारों ने गीता का क्या तात्पर्य निश्चित किया है। इन भाष्यों तथा टीकाओं में आजकल श्रीशंकराचार्य कृत गीता-भाष्य अति प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। यद्यपि इसके भी पूर्व गीता पर अनेक भाष्य और टीकाएं लिखी जा चुकी थीं तथापि वे अब उपलब्ध नहीं हैं; और इसीलिये जान नहीं सकते कि महाभारत के रचना काल से शंकराचार्य के समय तक गीता का अर्थ किस प्रकार किया जाता था। तथापि शांकरभाष्य ही में इन प्राचीन टीकाकारों के मतों का जो उल्लेख है [1], उससे साफ साफ मालूम होता है कि शंकाराचार्य के पूर्व कालीन टीकाकार, गीता का अर्थ,महाभारत कर्ता के अनुसार ही ज्ञान कर्म समुच्यात्मक किया करते थे। अर्थात उसका यह प्रवृति-विषय का अर्थ लगाया जाता था कि, ज्ञानी मनुष्य को ज्ञान के साथ साथ मृत्यु पर्यन्त स्वधर्म विहित कर्म करना चाहिये। परन्तु वैदिक कर्म योग का यह सिद्धांत श्रीशंकराचार्य को मान्य नहीं था,इसलिये उसका खंडन करने और अपने मत के अनुसार गीता का तात्पर्य बताने ही के लिये उन्होंने गीता भाष्य की रचना की है। यह बात उक्त भाष्य के आरंभ के उपोद्घात में स्पष्ट रीति से कही गई है।‘भाष्य’ शब्द का अर्थ भी यही है।‘भाष्य’ और ’टीका’ का बहुधा समानार्थी उपयोग होता है, परन्तु सामान्यतः टीका मूल ग्रन्थ के सरल अन्वय और उसके सुगम अर्थ करने ही को कहते हैं।
भाष्यकार इतनी ही बातों पर संतुष्ट नहीं रहता। वह उस ग्रंथ की न्याय युक्त समालोचना करता है, अपने मतानुसार उसका तात्पर्य बतलाता है और उसी के अनुसार वह यह भी बतलाता है कि ग्रन्थ का अर्थ कैसे लगाना चाहिये। गीता के शंकरभाष्य का यही स्वरूप है परन्तु गीता के तात्पर्य के विवेचन में शंकराचार्य ने जो भेद किया है उसका कारण जानने के पहले थोड़ा सा पूर्व कालिक इतिहास भी यहाँ पर जान लेना चाहिये। वैदिक धर्म केवल तांत्रिक धर्म नहीं है; उसमें जो गूढ़ तत्त्व है उनका सूक्ष्म विवेचन विभिन्नता भी आ गई है। इस विचार-विरोध को मिटाने के लिये ही बादरायणाचार्य ने अपने वेदान्तसूत्रों में सब उपनिषदों के समान ही,प्रमाण माने जाते हैं।
तथापि वैदिक धर्म के तत्त्व ज्ञान का पूर्ण विचार इतने से ही नहीं हो सकता। क्योंकि उपनिषदों का ज्ञान प्रायः वैराग्य विषय के अर्थात निवृति विषय का है; और वेदान्तसूत्र तो सिर्फ उपनिषदों का मतैक्य करने ही के उदेश्‍य से बनाये गये हैं,इसीलिये उनमे भी वैदिक प्रवृति मार्ग का विस्तृत विवेचन कहीं भी नहीं किया गया है। इसीलिये उपर्युक्त कथनानुसार जब प्रवृति मार्ग-प्रतिपादक भगवद्गीता ने वैदिक धर्म की तत्त्व ज्ञान संंबंधी इस न्यूवता की पूर्ति पहले पहल की,तब उपनिषदों और वेदांत सूत्रों के धार्मिक तत्त्व ज्ञान की पूर्णता करने वाला यह भगवद्गीता ग्रंथ भी,उन्हीं के समान,सर्व मान्य और प्रमाण भूत हो गया। और अंत में उपनिषदों, वेदांत सूत्रों और भगवद्गीता का ‘प्रस्थानत्रयी’नाम पड़ा। ‘प्रस्थानत्रयी’ का यह अर्थ है कि उसमें वैदिक धर्म के आधारभूत तीन मुख्य ग्रन्थ हैं जिनमें प्रवृति और निवृति दोनों मार्गों का नियमानुसार तथा तात्विक विवेचन किया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी.शां.अ.2 और 3 का उपोद्धात देखो

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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