गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
पहला प्रकरण
अब देखना चाहिये कि गीता के भाष्यकारों और टीकाकारों ने गीता का क्या तात्पर्य निश्चित किया है। इन भाष्यों तथा टीकाओं में आजकल श्रीशंकराचार्य कृत गीता-भाष्य अति प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। यद्यपि इसके भी पूर्व गीता पर अनेक भाष्य और टीकाएं लिखी जा चुकी थीं तथापि वे अब उपलब्ध नहीं हैं; और इसीलिये जान नहीं सकते कि महाभारत के रचना काल से शंकराचार्य के समय तक गीता का अर्थ किस प्रकार किया जाता था। तथापि शांकरभाष्य ही में इन प्राचीन टीकाकारों के मतों का जो उल्लेख है [1], उससे साफ साफ मालूम होता है कि शंकाराचार्य के पूर्व कालीन टीकाकार, गीता का अर्थ,महाभारत कर्ता के अनुसार ही ज्ञान कर्म समुच्यात्मक किया करते थे। अर्थात उसका यह प्रवृति-विषय का अर्थ लगाया जाता था कि, ज्ञानी मनुष्य को ज्ञान के साथ साथ मृत्यु पर्यन्त स्वधर्म विहित कर्म करना चाहिये। परन्तु वैदिक कर्म योग का यह सिद्धांत श्रीशंकराचार्य को मान्य नहीं था,इसलिये उसका खंडन करने और अपने मत के अनुसार गीता का तात्पर्य बताने ही के लिये उन्होंने गीता भाष्य की रचना की है। यह बात उक्त भाष्य के आरंभ के उपोद्घात में स्पष्ट रीति से कही गई है।‘भाष्य’ शब्द का अर्थ भी यही है।‘भाष्य’ और ’टीका’ का बहुधा समानार्थी उपयोग होता है, परन्तु सामान्यतः टीका मूल ग्रन्थ के सरल अन्वय और उसके सुगम अर्थ करने ही को कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गी.शां.अ.2 और 3 का उपोद्धात देखो
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