भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
3.प्रमुख टीकाकार
परमात्मा इस संसार का बनाने वाला है और स्वयं परमात्मा से ही यह संसार बना भी हुआ है। आत्मा और शरीर की उपमा संसार की ईश्वर पर पूर्ण निर्भरता को सूचित करने के लिय प्रयुक्त की गई है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि शरीर आत्मा पर निर्भर होता है। यह संसार केवल ईश्वर का शरीर नहीं है, अपितु उसका अवशिष्ट भाग है, ईश्वरस्य शेषः, और यह वाक्यांश संसार की पूर्ण पराश्रितता और गौणता का सूचक है। सब प्रकार की चेतना में यह पूर्वधारणा विद्यमान है कि एक कर्ता होगा और एक कर्म हो; और यह उस चेतना से भिन्न है, जिसे रामानुज ने आश्रित तत्त्व[1]माना है, जो स्वयं बाहर निकल पाने में समर्थ है। अहं[2] अवास्तविक नहीं है और मुक्ति की दशा में वह लुप्त नहीं हो जाता। उपनिषद के प्रसंग, तत् त्वम् असि, ‘वह तू है’ का अर्थ यह है कि “ईश्वर मैं स्वयं हूँ;” ठीक उसी प्रकार, जैसे मेरी आत्मा मेरे शरीर का आत्म है। परमात्मा आत्मा को संभालने वाला, उसका नियन्त्रण करने वाला मूल तत्त्व है; ठीक उसी प्रकार जैसे आत्मा शरीर को संभालने वाला मूल तत्त्व है। परमात्मा एक हैं; इसलिए नहीं कि दोनों ठीक एक ही वस्तु हैं, बल्कि इसलिए कि परमात्मा आत्मा के अन्दर निवास करता है और उसके अन्दर तक प्रविष्ट हुआ है। वह आन्तरिक मार्गदर्शक है, अन्तर्यामी, जो आत्मा के अन्दर खूब गहराई में निवास करता है और इस रूप में उसके जीवन का मूल तत्त्व है। परन्तु अन्तर्व्यापिता तद्रूपदा[3] नहीं है। काल और शाश्वतता, दोनों में ही जीव स्रष्टा से पृथक रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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