भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
6.संसार की स्थिति और माया की धारणा
आत्मा सब द्वैतों से ऊपर रहती है; परन्तु जब उसे विश्व के दृष्टिकोण से देखा जाता है, तो वह अनुभवातीत विषय-वस्तु के सम्मुख खड़े अनुभवातीत कर्ता के रूप में बदल जाती है। कर्ता और विषय-वस्तु एक ही वास्तविकता के दो ध्रुव हैं। वे परस्पर असम्बद्ध नहीं हैं। वस्तु-रूपात्मकता का मूल तत्त्व, मूल प्रकृति, जो सम्पूर्ण अस्तित्व की अव्यक्त सम्भावना है, ठीक उसी प्रकार की वस्तु है, जिस प्रकार की वस्तु सृजनात्मक शब्द ब्रह्म, ईश्वर है। सनातन ‘अहं’ अर्धसनातन ‘नाहं’ के सम्मुख रहता है, नारायण जल में ध्यानमग्न रहता है क्योंकि ‘नाहं’, प्रकृति, आत्मा का एक प्रतिबिम्ब-मात्र है, इसलिए यह आत्मा के अधीन है। जब परब्रह्म में निषेधात्मकता का तत्त्व आ घुसता है, तब उसकी आन्तरिकता अस्तित्व (नाम-रूप) धारण की प्रक्रिया में प्रकट होने लगती है। मूल एकता विश्व की सम्पूर्ण गतिविधि से गर्भित हो उठती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रॉक्लस से तुलना कीजिए, जो भौतिक तत्त्व को ‘परमात्मा के शिशु’ के रूप में मानता है, जिसे अवश्य ही आत्मा में रूपान्तरित किया जाना है।
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