गीता रहस्य -तिलक पृ. 468

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पन्द्रहवां प्रकरण
उपसंहार

तस्पात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च।[1] [2]

चाहे आप गीता के अध्यायों की संगति या मेल देखिये, या उन अध्यायों के विषयों का मीमांसकों की पद्धति से पृथक पृथक विवेचन कीजिये; किसी भी दृष्टि से विचार कीजिये, अन्त में गीता का सच्चा तात्पर्य यही मालूम होगा कि “ज्ञान-भक्तियुक्त कर्मयोग” ही गीता का सार है; अर्थात् साम्प्रदायिक टीकाकारों ने कर्मयोग को गौणा ठहरा कर गीता के जो अनेक प्रकार के तात्पर्य बतलाये हैं, वे यथार्थ नहीं हैं, किन्तु उपनिषदों में वर्णित अद्वैत वेदान्त का भक्ति के साथ मेल कर उसके द्वारा बड़े बडे़ कर्मवीरों के चरित्रों का रहस्य या आयु बिताने के क्रम की उत्‍पत्ति-बतलाना ही गीता का सच्चा तात्पर्य है। मीमांसकों के कथनानुसार केवल श्रौतस्मार्त्त कर्मों को सदैव करते रहना भले ही शास्त्रोक्त हो; तो भी ज्ञान-रहित केवल तांत्रिक क्रिया से बुद्धिमान मनुष्य का समाधान नहीं होता; और, यदि उपनिषदों में वर्णित धर्म को देखें तो वह केवल ज्ञानमय होने के कारण अल्पबुद्धि वाले मनुष्यों के लिये अत्यन्त कष्ट-साध्य है। इसके सिवा एक और बात है, कि उपनिषदों का संन्यासमार्ग लोकसंग्रह का बाधक भी है। इसलिये भगवान ने ऐसे ज्ञान-मूलक, भक्ति-प्रधान और निष्काम-कर्म विषयक धर्म का उपदेश गीता में किया है, कि जिसका पालन आमरणान्त किया जावे, जिससे बुद्धि (ज्ञान), प्रेम (भक्ति) और कर्त्तव्य का ठीक ठीक मेल हो जाये, मोक्ष की प्राप्ति में कुछ अन्तर न पड़ने पावे, और लोक-व्यवहार भी सरलता से होता रहे। इसीमें कर्म-अकर्म के शास्‍त्र का सब सार भरा हुआ है।

अधिक क्या कहें; गीता के उपक्रम-उपसंहार से यह बात स्पष्टतया विदित हो जाती है, कि अर्जुन को इस धर्म का उपदेश करने में कर्म-अकर्म का विवेचन ही मूलकारण है। इस बात का विचार दो तरह किया जाता है कि किस कर्म को धर्म्‍य, पुणयप्रद, न्याय्य या श्रेयस्कर कहना चाहिये और किस कर्म को इनके उलटा अर्थात अधर्म्‍य, पापप्रद, अन्याय्य या गर्ह्य कहना चाहिये। पहली रीति यह है, कि उत्‍पत्ति, कारण या मर्म न बतला कर केवल यह कह दे, कि किसी काम को अमुक रीति से करो तो वह शुद्ध होगा और अन्य रीति से करो तो अशुद्ध हो जायेगा। उदाहरणार्थ- हिंसा मत करो, चोरी मत करो, सच बोलो, धर्माचरण करो, इत्यादि बातें इसी प्रकार की हैं। मनुस्मृति आदि स्मृतिग्रन्थों में तथा उपनिषदों में ये विधियां, आज्ञाएं अथवा प्रचार स्पष्ट रीति से बतलाये गये हैं। परन्तु मनुष्य ज्ञानवान प्राणी है इसलिये उसका समाधान केवल ऐसी विधियों या आज्ञाओं से नही हो सकता; क्योंकि मनुष्य की यही स्वाभाविक इच्छा होती है, कि वह उन नियमों के बनाये जाने का कारण भी जान ले; और, इसीलिये वह विचार करके इन नियमों के नित्य तथा मूलततत्त्व की खोज किया करता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. “इसलिये सदैव मेरा स्मरण कर और लड़ाई कर”। लड़ाई कर-शब्द की योजना यहाँ पर प्रसंगानुसार की गई है; परन्तु उसका अर्थ केवल ‘लड़ाई कर’ ही नहीं है-यह अर्थ भी समझा जाना चाहिये कि ‘यथाधिकार कर्म कर।’
  2. गीता. 8.7

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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