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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:
अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्
हरिरिति हरिरिति जपति सकामम्। अनुवाद- विरह के कारण उनका प्राणत्याग निश्चित-सा हो गया है, श्रीराधा निरन्तर 'श्रीहरि, श्रीहरि' इस नाम का आपकी प्राप्ति की कामना से जप करती रहती है। पद्यानुवाद बालबोधिनी- श्रीराधा का विरहानल में दग्ध होने के कारण यह निश्चित-सा ही हो गया है कि अब उनके प्राण बचेंगे नहीं। संसार से निराश तथा मुमुर्षु जन जैसे श्रीहरि का अहर्निश नाम जपते हैं, उसी प्रकार श्रीराधा भी आपकी प्राप्ति की अभिलाषा से सर्वदा श्रीहरि का नाम जपती रहती हैं। प्रणत-क्लेश-नाशन होने से श्रीकृष्ण हरि कहे जाते हैं। हरि-हरि जप करने से इस जन्म में न सही, दूसरे जन्म में वे अवश्य ही प्रियतम के रूप में प्राप्त होंगे इसी कामना को लेकर जप कर रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- विरहविहित-मरणा (त्वद्विरहेण विहितम् अवधारितं मरणं यस्या: सा) इव [सती] निकामं (मरणे या मति: सा एव जीवस्य गतिरिति मत्वा अनवरतं) सकामं (साभिलाषं) हरिरिति हरिरिति जपति ॥7॥
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