गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 203

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

चतुर्थ: सर्ग:
स्निग्ध-मधुसूदन:

अथ नवम: सन्दर्भ
9. गीतम्

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श्रीजयदेव-भणितमिति गीतम्।
सुखयतु केशव-पदमुपनीतम्
राधिका विरहे.... ॥8॥[1]

अनुवाद- श्रीजयदेव प्रणीत यह गीत श्रीकृष्ण के चरणों में शरणागत हुए वैष्णवों का सुख विधान करे।

पद्यानुवाद
गीतमें 'कवि' भींगते हैं
हरि स्वयं आ रीझते हैं।
है विरहकी पीर भारी
छीजती जाती बिचारी॥

बालबोधिनी- श्रीजयदेव के द्वारा नवें प्रबन्ध के रूप में श्रीहरि का यह गीत प्रस्तुत हुआ है। यह गीत 'भक्तजनों को सुख देगा', श्रीराधा की इस चित्त-भूमिका स्मरण सीधे केशव-चरणों में पहुँचेगा। इस गीत को कवि ने वैष्णवों के सान्निध्य में गाया है। यहाँ 'केशव' पद वैष्णवों का वाचक है।

'केशव: पदं = स्थानं यस्याऽसौ तं केशवपदम्' अर्थात भगवान जिनके द्वारा प्राप्य हैं, वे वैष्णव ही केशव पद-वाच्य हैं। इस सम्पूर्ण गीत में मालाचतुष्पदी नामक छन्द तथा उपमा अलंकार है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- इति (उक्तप्रकारेण) श्रीजयदेव-भणितं (श्रीजयदेवोक्तं) गीतं केशव-पदं (श्रीकृष्णपदम्) उपनीतं (प्राप्तं तत्पदयो: समर्पित-चित्तमिति यावत्) [भक्तम्] सुखयतु (सुखीकरोतु) ॥9॥

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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