गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 142

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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अलस-निमीलित-लोचन पुलकावलि-ललित-कपोलम्
श्रमजल-सकल-कलेवरया वरमदन-मदादतिलोलम्-
सखि हे केशीमथनमुदारम् ... ... ॥4॥[1]

अनुवाद- जिनके साथ मदन-आमोद में अप्रत्याशित सुख से मेरी आँखें अलसा गयीं, मुँद गयीं, उस विलास सुख से श्रीकृष्ण के कपोलयुगल ने अत्यन्त मनोज्ञ तथा ललित रूप धारण किया था, मदन-आमोदजनित श्रम के कारण नि:सृत स्वेदविन्दुओं से मनोहर देह वाली मुझे देखकर उस प्रबलतर मदन रस में मत्त होकर अनंग रस का रसास्वादन करने वाले अति चञ्चल श्रीकृष्ण से हे सखि! मुझे अति शीघ्र मिला दो ॥4॥

पद्यानुवाद
मेरे मिलित लोचन उनका, पुलक ललित वपु-कम्पन री।
श्रम-सीकरसे सिञ्चित तन यह, उनमें रतिका गुञ्जन री॥

बालबोधिनी- सखि! रतिसुख से क्लान्त हुआ मेरा शरीर अलसा जाता था और मेरी आँखें मुँद जाती थीं। कामजनित चिन्ता के कारण सारा शरीर स्वेद-विन्दुओं से सिक्त हो जाता था। उस समय मेरी यह दशा देखकर श्रीकृष्ण के हृदय में कामोद्रेक जनित हर्ष उदित होता था, जिससे उनके कपोलयुगल में सुमनोहर लावण्य प्रकाशित होने लगता था। वे प्रबलतर मदन आमोद में निमग्न हो जाते थे। मेरी देहलता को देखकर वे चञ्चल हो उठते थे, हे सखि! उन्हीं श्रीकृष्ण से मुझे मिला दो।

सुरतानन्द से श्रीराधा के शरीर की पसीने से लथपथता श्रीराधा के पूर्वानुभूत सुखानन्द की सम्पूर्त्ति व्यक्त कर रही है ॥4॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अलस-निमीलित-लोचना (अलसेन सुरतश्रमजातेन आलस्येन निमीलिते मुकुलिते विलोचने यस्या: तादृश्या) [मया सह] पुलकावलि-ललित-कपोलं (पुलकानां रोमाञ्चानाम् आवल्या श्रेण्या चुम्बनादिति भाव: ललितौ कपोलौ गण्डौ यस्य तादृशं) [केशिमथनम्.....] [तथा] श्रमजल-सकल-कलेवरया (श्रमजलं स्वेदाम्बु सकलकलेवरे यस्या: तादृश्या) [मया सह] वर-मदनमदात्र (प्रवृद्ध-मनसिज-विकारात् हेतो:) अतिलोलं (मां प्रति नितरां साकांक्षं) [केशिमथनम्.....] ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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