गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 137

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:

अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्

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पद्यानुवाद
निशि अन्धियारी ऋतु वसन्त सखि! घन निकुञ्ज वन नन्दन री।
खोज रहे कबसे दिशि दिशिमें, थकित चकित दृग् खंजन री।
ले चल वहीं थमे जिससे यह शाश्वत जी का क्रन्दन री।
रति-रस-भीने जहाँ विहँसते छिपे खड़े नन्दनन्दन री॥

बालबोधिनी- काम ज्वर से सन्तप्ता हृदया श्रीराधा सखी से कृष्णानुसन्धान की अभिलाषा व्यक्त करती हैं। प्रस्तुत श्लोक में उस प्रसंग का प्रकाश है, जिसमें उन्होंने अपने प्राणनाथ को रतिक्रीड़ा के द्वारा सुख प्रदान किया था, यह गाढ़तम रहस्यपूर्ण लीला है।

'सखि! रमय केशिमथनमुदारम् मया सह' हे सखि! केशिनिसूदन के साथ मेरा रमण कराओ। यहाँ तो श्रीराधा जी की स्वाभिलाषा व्यक्त हुई है, अपने सुख की वासना प्रकट हुई है, यह शुद्धभक्ति की परिभाषा के विपरीत है। अत: ऐसी अभिलाषा क्यों?

इसके उत्तर में कहते हैं कि गोपियों ने सब कुछ त्यागकर श्रीकृष्ण से प्रीति की है, उनमें अपने सुख का लेशमात्र भी नहीं है। पुन: जब तक परस्पर गाढ़ अनुराग न हो तब तक प्रेम परिस्फुट नहीं होता। प्रेमी के हृदय में प्रेम की वासना जाग्रत कराने हेतु प्रेयसी को स्वानुराग प्रदर्शित करना होता है, यह प्रेम का स्वभाव है।

एकदेशीय प्रेम में रसाभास दोष आ जाता है। कहा गया है-

अनुरागोऽनुरक्तायां रसावह इति स्थिति:।
अभावेत्वनुरागस्य रसाभासं जगुर्वुधा:॥

अर्थात- प्रीति जब अनुरक्ता स्त्री में होती है, तब वह रसवर्द्धनकारी होती है, परन्तु अनुराग के अभाव में तो रसाभास ही हो जाता है, ऐसा विद्वानों का मत है। अत: यहाँ श्रीराधा का श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग रस-वर्द्धनकारी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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