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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
अथ षष्ठ सन्दर्भ
6. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- काम ज्वर से सन्तप्ता हृदया श्रीराधा सखी से कृष्णानुसन्धान की अभिलाषा व्यक्त करती हैं। प्रस्तुत श्लोक में उस प्रसंग का प्रकाश है, जिसमें उन्होंने अपने प्राणनाथ को रतिक्रीड़ा के द्वारा सुख प्रदान किया था, यह गाढ़तम रहस्यपूर्ण लीला है। 'सखि! रमय केशिमथनमुदारम् मया सह' हे सखि! केशिनिसूदन के साथ मेरा रमण कराओ। यहाँ तो श्रीराधा जी की स्वाभिलाषा व्यक्त हुई है, अपने सुख की वासना प्रकट हुई है, यह शुद्धभक्ति की परिभाषा के विपरीत है। अत: ऐसी अभिलाषा क्यों? इसके उत्तर में कहते हैं कि गोपियों ने सब कुछ त्यागकर श्रीकृष्ण से प्रीति की है, उनमें अपने सुख का लेशमात्र भी नहीं है। पुन: जब तक परस्पर गाढ़ अनुराग न हो तब तक प्रेम परिस्फुट नहीं होता। प्रेमी के हृदय में प्रेम की वासना जाग्रत कराने हेतु प्रेयसी को स्वानुराग प्रदर्शित करना होता है, यह प्रेम का स्वभाव है। एकदेशीय प्रेम में रसाभास दोष आ जाता है। कहा गया है- अनुरागोऽनुरक्तायां रसावह इति स्थिति:। अर्थात- प्रीति जब अनुरक्ता स्त्री में होती है, तब वह रसवर्द्धनकारी होती है, परन्तु अनुराग के अभाव में तो रसाभास ही हो जाता है, ऐसा विद्वानों का मत है। अत: यहाँ श्रीराधा का श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग रस-वर्द्धनकारी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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