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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
मानवती श्रीराधा सखी के समझाये जाने पर श्रीकृष्ण के मदन-महोत्सव में सम्मिलित हो गयीं। इस मदन-उत्सव में श्रीकृष्ण सभी सखियों के प्रति समान स्नेह रखते हुए विहार कर रहे थे। जबकि श्रीराधा को यह गर्व था कि मैं उनकी सर्वश्रेष्ठा वल्लभा हूँ, नित्य सहचरी हूँ, परन्तु आज अपने प्रति विशिष्ट स्नेह प्रदर्शित न होने से श्रीराधा प्रणय-कोप के आवेश में अन्यत्र एक कुञ्ज में चली आयीं और छिपकर बैठ गयीं। ईर्ष्याकषायिता श्रीराधा को वहाँ भी कहीं शान्ति नहीं मिली। इस लताकुञ्ज के शिखर पर पुष्पों में मँडराता हुआ अलिवृन्द गुञ्जार कर रहा था। उस समय श्रीराधा अपनी मान की वेदना से पीड़ित होकर अपनी सखी से उन रहस्यात्मक बातों को कहने लगी, जिन्हें किसी के समक्ष कहा नहीं जाना चाहिए। प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द है। हरिणी छन्द का लक्षण है 'रसयुग हयै: न्सौ म्नौ स्लौ गो यदा हरिणी।' नायिका प्रौढ़ा है। रतिभाव के उद्रेकातिशय के कारण रसवदलंकार तथा अनुप्रास अलंकार हैं। अपि सोत्कर्ष भावमयी राधा कुछ न बोल सकने की स्थिति में थीं, रहस्यमयी बातें बतलाने वाली नहीं थीं, यह 'अपि' शब्द के द्वारा घोषित है। अत: 'अपि' शब्द चमत्कारातिशय युक्त है। प्रस्तुत श्लोक पञ्चम प्रबन्ध की पुष्पिका रूप है। दूसरे श्लोक से इसका समुचित प्रारम्भ है। यह प्रबन्ध गुर्ज्जरी-राग तथा यति-ताल से गाया जाता है ॥1॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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