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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
द्वितीय सर्ग
अक्लेश-केशव:
5. गीतम्
सञ्चरदधर-सुधा-मधुर-ध्वनि-मुखरित-मोहन-वंशं अनुवाद- सखि, कैसी आश्चर्य की बात है कि इस शारदीय रासोत्सव में श्रीकृष्ण मुझे छोड़कर अन्य कामिनियों के साथ कौतुक आमोद में विलास कर रहे हैं। फिर भी मेरा मन उनका पुन: पुन: स्मरण कर रहा है। वे सञ्चरणशील अपने मुखामृत को अपने करकमल में स्थित वेणु में भरकर फुत्कार के साथ सुमधुर मुखर स्वरों में बजा रहे हैं, अपांग-भंगी के द्वारा अपने मणिमय शिरोभूषण को चञ्चलता प्रदान कर रहे हैं, उनके कानों के आभूषण कपोल देश में दोलायमान हो रहे हैं, उनके इस श्याम रूप का, उनके हास-परिहास का मुझे बारम्बार स्मरण हो रहा है ॥1॥ पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखि ने कहा प्रिय राधिके! जब श्रीकृष्ण ने तुम्हारा प्रत्याख्यान किया है, तब तुम क्यों उनके प्रेम में इतनी अधीर हो रही हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- सखि, सञ्चरदधर-सुधा मधुर-ध्वनि-मुखरित-मोहन-वंशं (सञ्चरन्ती उद्गच्छन्ता अधरसुधा यत्र तेन मधुरेण ध्वनिना मुखरित: शब्दित: मोहन: मनोमोहकर: वंश: वेणु येन तादृशं) वलित-दृगञ्चल-चञ्चल-मौलि-कपोल-विलोल-वतंसं (वलितेन इतस्तत: प्रचलता दृगञ्चलेन दृशो: नेत्रयो: अञ्चलं चक्षु:प्रान्तभाग: तेन कटाक्षेणेत्यर्थ: यो सौ चञ्चलमौलि: कम्पितशिरोभूषणं तेन कपोलयो: गण्डयो: विलोलौ चञ्चलौ वतंसौ मणिकुण्डले यस्य तादृशं) इह रासे (शारदीय-रासलीलायां) विहितविलासं (विहित: कृत: विलास: हावभावो येन तादृशं) [तथा] कृतपरिहासं (कृत: परिहासो येन तादृशं) हरिं मम मन: स्मरति ॥1॥
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