"श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य पृ. 294" के अवतरणों में अंतर

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'''यस्मात् कर्मनिष्ठात् पुरुषान्निमित्त भूतान् लोको न उद्विजयते, यः लोकोद्वेगकरं कर्म किञ्चिद् अपि न करोति इत्यर्थः। लोकात् च निमित्तभूताद् यः न उद्विजते, यम् उद्दिश्य सर्वलोको न उद्वेगकरं कर्म करोति, सर्वाविरोधित्वनिश्चयात्। अतएव कंचन प्रति हर्षेण, कंचन प्रति अमर्षेण कंचन प्रति भयेन, कंचन प्रति उद्वेगेन मुक्तः एवम्भूतः यः सः अपि मे प्रियः।।15।।'''
 
'''यस्मात् कर्मनिष्ठात् पुरुषान्निमित्त भूतान् लोको न उद्विजयते, यः लोकोद्वेगकरं कर्म किञ्चिद् अपि न करोति इत्यर्थः। लोकात् च निमित्तभूताद् यः न उद्विजते, यम् उद्दिश्य सर्वलोको न उद्वेगकरं कर्म करोति, सर्वाविरोधित्वनिश्चयात्। अतएव कंचन प्रति हर्षेण, कंचन प्रति अमर्षेण कंचन प्रति भयेन, कंचन प्रति उद्वेगेन मुक्तः एवम्भूतः यः सः अपि मे प्रियः।।15।।'''
  
जिस कर्म निष्ठा वाले पुरुष के निमित्त से प्राणियों को उद्वेग नहीं होता अर्थात् जो पुरुष लोगों को उद्विग्न करने वाला कोई भी कर्म नहीं करता तथा जो लोगों के द्वारा उद्वेगयुक्त नहीं किया जाता- जिसके उद्देश्य से दूसरे लोग भी कोई उद्वेगकारक कर्म नहीं करते; क्योंकि सभी उसको अविरोधी समझते हैं। इसीलिये जो किसी के प्रति हर्ष, किसी के प्रति ईष्या, किसी के भय और किसी के प्रति उद्वेग से रहित हो गया है, ऐसा जो पुरुष है, वह भी मेरा प्रिय है। ।15।।
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जिस कर्म निष्ठा वाले पुरुष के निमित्त से प्राणियों को उद्वेग नहीं होता अर्थात् जो पुरुष लोगों को उद्विग्न करने वाला कोई भी कर्म नहीं करता तथा जो लोगों के द्वारा उद्वेगयुक्त नहीं किया जाता- जिसके उद्देश्य से दूसरे लोग भी कोई उद्वेगकारक कर्म नहीं करते; क्योंकि सभी उसको अविरोधी समझते हैं। इसीलिये जो किसी के प्रति हर्ष, किसी के प्रति ईर्ष्या, किसी के भय और किसी के प्रति उद्वेग से रहित हो गया है, ऐसा जो पुरुष है, वह भी मेरा प्रिय है। ।15।।
  
 
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01:22, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण

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श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
बारहवाँ अध्याय


यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: ॥15॥
जिससे संसार उद्वेग नहीं करता और जो संसार से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता, जो हर्ष, अमर्ष भय तथा उद्वेग से मुक्त है, वह भी मेरा प्यारा है। |15।।

यस्मात् कर्मनिष्ठात् पुरुषान्निमित्त भूतान् लोको न उद्विजयते, यः लोकोद्वेगकरं कर्म किञ्चिद् अपि न करोति इत्यर्थः। लोकात् च निमित्तभूताद् यः न उद्विजते, यम् उद्दिश्य सर्वलोको न उद्वेगकरं कर्म करोति, सर्वाविरोधित्वनिश्चयात्। अतएव कंचन प्रति हर्षेण, कंचन प्रति अमर्षेण कंचन प्रति भयेन, कंचन प्रति उद्वेगेन मुक्तः एवम्भूतः यः सः अपि मे प्रियः।।15।।

जिस कर्म निष्ठा वाले पुरुष के निमित्त से प्राणियों को उद्वेग नहीं होता अर्थात् जो पुरुष लोगों को उद्विग्न करने वाला कोई भी कर्म नहीं करता तथा जो लोगों के द्वारा उद्वेगयुक्त नहीं किया जाता- जिसके उद्देश्य से दूसरे लोग भी कोई उद्वेगकारक कर्म नहीं करते; क्योंकि सभी उसको अविरोधी समझते हैं। इसीलिये जो किसी के प्रति हर्ष, किसी के प्रति ईर्ष्या, किसी के भय और किसी के प्रति उद्वेग से रहित हो गया है, ऐसा जो पुरुष है, वह भी मेरा प्रिय है। ।15।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 1
अध्याय 2 17
अध्याय 3 68
अध्याय 4 101
अध्याय 5 127
अध्याय 6 143
अध्याय 7 170
अध्याय 8 189
अध्याय 9 208
अध्याय 10 234
अध्याय 11 259
अध्याय 12 286
अध्याय 13 299
अध्याय 14 348
अध्याय 15 374
अध्याय 16 396
अध्याय 17 421
अध्याय 18 448

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