गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
श्रीमद्भगवद्गीता : द्वितीय अध्याय
(31) इसके सिवा स्वधर्म की ओर देखें तो भी (इस समय) हिम्मत हारना तुझे उचित नहीं है। क्योंकि धर्मोचित युद्ध की अपेक्षा क्षत्रिय को श्रेयस्कर और कुछ है ही नहीं। तिलक के अनुसार-[स्वधर्म की यह उपपत्ति आगे भी दो बार[1] बतलाई गई है। संन्यास अथवा सांख्य मार्ग के अनुसार यद्यपि कर्म संन्यासरूपी चतुर्थ आश्रम अंत की सीढ़ी है, तो भी मनु आदि स्मृति-कर्ताओं का कथन है, कि इसके पहले चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण को ब्राह्मणधर्म और क्षत्रिय को क्षत्रिय धर्म का पालन कर गृहस्थाश्रम पूरा करना चाहिये, अतएव इस श्लोक का और आगे के श्लोक का तात्पर्य यह है, कि गृहस्थाश्रमी अर्जुन को युद्ध करना आवश्यक है।] (32) और हे पार्थ! यह युद्ध आप ही आप खुला हुआ स्वर्ग का द्वार ही है; ऐसा युद्ध भाग्यवान क्षत्रियों ही को मिला करता है। अतएव यदि तू (अपने) धर्म के अनुकूल यह युद्ध न करेगा, तो स्वधर्म और कीर्ति खो कर पाप बटोरेगा। यही नहीं बल्कि (सब) लोग तेरी अक्षय्य दुष्कीर्ति गाते रहेंगे! और अपयश तो सम्भावित पुरुष के लिये मृत्यु से भी बढ़ कर है। तिलक के अनुसार-[ श्रीकृष्ण ने यही तत्त्व उद्योगपर्व में युधिष्ठिर को भी बतलाया है[2]। वहाँ यह श्लोक है–“कुलीनस्य च या निन्दा वधो वाऽमित्रकर्षणम। महागुणों वधो राजन न तु निन्दा कुजीविका॥” परंतु गीता में इसकी अपेक्षा यह अर्थ संक्षेप में है; और गीता ग्रंथ का प्रचार भी अधिक है, इस कारण गीता के “सम्भावितस्य.” इत्यादि वाक्य का कहावत का सा उपयोग होने लगा है। गीता के और बहुतेरे श्लोक भी इसी के समान सर्वसाधारण लोगों में प्रचलित हो गये हैं। अब दुष्कीर्ति का स्वरूप बतलाते हैं-] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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