गीता रहस्य -तिलक पृ. 619

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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श्रीमद्भगवद्गीता : द्वितीय अध्याय

 
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकंपितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥ 31 ॥
यद्दच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीद्दशम् ॥ 32 ॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
तत: स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ 33 ॥
अकर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥ 34 ॥

(31) इसके सिवा स्वधर्म की ओर देखें तो भी (इस समय) हिम्मत हारना तुझे उचित नहीं है। क्योंकि धर्मोचित युद्ध की अपेक्षा क्षत्रिय को श्रेयस्कर और कुछ है ही नहीं। तिलक के अनुसार-[स्वधर्म की यह उपपत्ति आगे भी दो बार[1] बतलाई गई है। संन्यास अथवा सांख्य मार्ग के अनुसार यद्यपि कर्म संन्यासरूपी चतुर्थ आश्रम अंत की सीढ़ी है, तो भी मनु आदि स्मृति-कर्ताओं का कथन है, कि इसके पहले चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण को ब्राह्मणधर्म और क्षत्रिय को क्षत्रिय धर्म का पालन कर गृहस्थाश्रम पूरा करना चाहिये, अतएव इस श्लोक का और आगे के श्लोक का तात्पर्य यह है, कि गृहस्थाश्रमी अर्जुन को युद्ध करना आवश्यक है।]

(32) और हे पार्थ! यह युद्ध आप ही आप खुला हुआ स्वर्ग का द्वार ही है; ऐसा युद्ध भाग्यवान क्षत्रियों ही को मिला करता है। अतएव यदि तू (अपने) धर्म के अनुकूल यह युद्ध न करेगा, तो स्वधर्म और कीर्ति खो कर पाप बटोरेगा। यही नहीं बल्कि (सब) लोग तेरी अक्षय्य दुष्कीर्ति गाते रहेंगे! और अपयश तो सम्भावित पुरुष के लिये मृत्यु से भी बढ़ कर है। तिलक के अनुसार-[ श्रीकृष्ण ने यही तत्त्व उद्योगपर्व में युधिष्ठिर को भी बतलाया है[2]। वहाँ यह श्लोक है–“कुलीनस्य च या निन्दा वधो वाऽमित्रकर्षणम। महागुणों वधो राजन न तु निन्दा कुजीविका॥” परंतु गीता में इसकी अपेक्षा यह अर्थ संक्षेप में है; और गीता ग्रंथ का प्रचार भी अधिक है, इस कारण गीता के “सम्भावितस्य.” इत्यादि वाक्य का कहावत का सा उपयोग होने लगा है। गीता के और बहुतेरे श्लोक भी इसी के समान सर्वसाधारण लोगों में प्रचलित हो गये हैं। अब दुष्कीर्ति का स्वरूप बतलाते हैं-]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. 3. 35 और 18. 47
  2. मभा. उ. 72. 24

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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