"गीता रहस्य -तिलक पृ. 487" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">पन्द्रहवां प्रकरण</div>
 
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वह इसी लिये किया है कि पिंड ब्रह्माण्‍ड सम्बन्धी उनके मत प्राचीन मतों से भिन्न हैं। परन्तु जो लोग उक्त नूतन मतों को नहीं मानते और जो इन प्रश्‍नों का स्पष्ट तथा गंभीर विचार कर लेना चाहते हैं-कि “मैं कौन हूं? सृष्टि क्या है? मुझे इस सृष्टि का ज्ञान कैसे होता हैं? जो सृष्टि मुझे से बाहर है वह स्वतंत्र है या नहीं? यदि है, तो उसका मूल तत्त्व क्या है? इस तत्त्व से मेरा क्या सम्बन्ध है? एक मनुष्य दूसरे के सुख के लिये अपनी जान क्यों देवे?’ जो जन्म लेते हैं वे मरते भी हैं’ इस नियम के अनुसार यदि यह बात निश्चित है, कि जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसका और उसके साथ समस्त प्राणियों का तथा हमारा भी किसी दिन अवश्‍य नाश हो जायेगा, तो नाशवान भविष्य पीढियों के लिये हम अपने सुख का नाश क्यों करें?’’ अथवा, जिन लोगों का केवल इस उत्तर से पूरा समाधान नहीं होता, कि “परोपकार आदि मनोवृत्तियां इस कर्ममय, अनित्य और दृश्‍य सृष्टि की नैसर्गिक प्रवृति ही है’’, और जो यह जानना चाहते हैं कि इस नैसर्गिक प्रवृति का मूलकारण क्या है-उनके लिये अध्यात्मशास्त्र के नित्य-तत्त्वज्ञान का सहारा लेने के सिवा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। और, इसी कारण से ग्रीन ने अपने नीतिशास्त्र के ग्रन्‍थ का आरम्भ इसी तत्त्व के प्रतिपादन से किया है, कि जिस आत्मा को जड़सृष्टि का ज्ञान होता है वह आत्मा जड़सृष्टि से अवश्‍य ही भिन्न होगा; और, कान्ट ने पहले व्ययसायात्मक बुद्धि का विवेचन करके फिर वासनात्मक बुद्धि की तथा नीतिशास्त्र की मीमांसा की है।  
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वह इसी लिये किया है कि पिंड ब्रह्माण्‍ड सम्बन्धी उनके मत प्राचीन मतों से भिन्न हैं। परन्तु जो लोग उक्त नूतन मतों को नहीं मानते और जो इन प्रश्‍नों का स्पष्ट तथा गंभीर विचार कर लेना चाहते हैं-कि “मैं कौन हूं? सृष्टि क्या है? मुझे इस सृष्टि का ज्ञान कैसे होता है? जो सृष्टि मुझे से बाहर है वह स्वतंत्र है या नहीं? यदि है, तो उसका मूल तत्त्व क्या है? इस तत्त्व से मेरा क्या सम्बन्ध है? एक मनुष्य दूसरे के सुख के लिये अपनी जान क्यों देवे?’ जो जन्म लेते हैं वे मरते भी हैं’ इस नियम के अनुसार यदि यह बात निश्चित है, कि जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसका और उसके साथ समस्त प्राणियों का तथा हमारा भी किसी दिन अवश्‍य नाश हो जायेगा, तो नाशवान भविष्य पीढियों के लिये हम अपने सुख का नाश क्यों करें?’’ अथवा, जिन लोगों का केवल इस उत्तर से पूरा समाधान नहीं होता, कि “परोपकार आदि मनोवृत्तियां इस कर्ममय, अनित्य और दृश्‍य सृष्टि की नैसर्गिक प्रवृति ही है’’, और जो यह जानना चाहते हैं कि इस नैसर्गिक प्रवृति का मूलकारण क्या है-उनके लिये अध्यात्मशास्त्र के नित्य-तत्त्वज्ञान का सहारा लेने के सिवा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। और, इसी कारण से ग्रीन ने अपने नीतिशास्त्र के ग्रन्‍थ का आरम्भ इसी तत्त्व के प्रतिपादन से किया है, कि जिस आत्मा को जड़सृष्टि का ज्ञान होता है वह आत्मा जड़सृष्टि से अवश्‍य ही भिन्न होगा; और, कान्ट ने पहले व्ययसायात्मक बुद्धि का विवेचन करके फिर वासनात्मक बुद्धि की तथा नीतिशास्त्र की मीमांसा की है।  
  
 
‘मनुष्य अपने सुख के लिये या अधिकांश लोगों को सुख देने के लिये पैदा हुआ है’- यह कथन ऊपर से चाहे कितना भी मोहक तथा उत्‍तम दिखे, परन्तु वस्तुतः यह सच नहीं है। यदि हम क्षणभर इस का विचार करें, कि जो महात्मा केवल सत्य के लिये प्राण-दान करने को तैयार रहते हैं, उनके मन में क्या यही हेतु रहता है, कि भविष्य पीढ़ी के लोगों को अधिकाधिक विषयसुख होवे; तो यही कहना पड़ता है, कि अपने तथा अन्य लोगों के अनित्य आधिभौतिक सुखों की अपेक्षा इस संसार में मनुष्य का और भी कुछ दूसरे अधिक महत्त्व का परमसाध्य या उद्देश अवश्‍य है। यह उद्देश क्या है? जिन्होंने पिंड ब्रह्माण्‍ड के नामरूपात्‍मक, (अतएव) नाशवान, (परन्तु) दृश्‍य स्वरूप से आच्छादित आत्मस्वरूपी नित्य तत्त्व की अपनी आत्मप्रतीति के द्वारा जान लिया है, वे लोग उक्त प्रश्‍न का उत्तर देते हैं, कि अपने आत्मा के अमर, श्रेष्ठ, शुद्ध, नित्य तथा सर्वव्यापी स्वरूप की पहचान करके उसी में रम रहना ज्ञानवान मनुष्य का इस नाशवान संसार में पहला कर्त्तव्य है।  
 
‘मनुष्य अपने सुख के लिये या अधिकांश लोगों को सुख देने के लिये पैदा हुआ है’- यह कथन ऊपर से चाहे कितना भी मोहक तथा उत्‍तम दिखे, परन्तु वस्तुतः यह सच नहीं है। यदि हम क्षणभर इस का विचार करें, कि जो महात्मा केवल सत्य के लिये प्राण-दान करने को तैयार रहते हैं, उनके मन में क्या यही हेतु रहता है, कि भविष्य पीढ़ी के लोगों को अधिकाधिक विषयसुख होवे; तो यही कहना पड़ता है, कि अपने तथा अन्य लोगों के अनित्य आधिभौतिक सुखों की अपेक्षा इस संसार में मनुष्य का और भी कुछ दूसरे अधिक महत्त्व का परमसाध्य या उद्देश अवश्‍य है। यह उद्देश क्या है? जिन्होंने पिंड ब्रह्माण्‍ड के नामरूपात्‍मक, (अतएव) नाशवान, (परन्तु) दृश्‍य स्वरूप से आच्छादित आत्मस्वरूपी नित्य तत्त्व की अपनी आत्मप्रतीति के द्वारा जान लिया है, वे लोग उक्त प्रश्‍न का उत्तर देते हैं, कि अपने आत्मा के अमर, श्रेष्ठ, शुद्ध, नित्य तथा सर्वव्यापी स्वरूप की पहचान करके उसी में रम रहना ज्ञानवान मनुष्य का इस नाशवान संसार में पहला कर्त्तव्य है।  

01:18, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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पन्द्रहवां प्रकरण

वह इसी लिये किया है कि पिंड ब्रह्माण्‍ड सम्बन्धी उनके मत प्राचीन मतों से भिन्न हैं। परन्तु जो लोग उक्त नूतन मतों को नहीं मानते और जो इन प्रश्‍नों का स्पष्ट तथा गंभीर विचार कर लेना चाहते हैं-कि “मैं कौन हूं? सृष्टि क्या है? मुझे इस सृष्टि का ज्ञान कैसे होता है? जो सृष्टि मुझे से बाहर है वह स्वतंत्र है या नहीं? यदि है, तो उसका मूल तत्त्व क्या है? इस तत्त्व से मेरा क्या सम्बन्ध है? एक मनुष्य दूसरे के सुख के लिये अपनी जान क्यों देवे?’ जो जन्म लेते हैं वे मरते भी हैं’ इस नियम के अनुसार यदि यह बात निश्चित है, कि जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसका और उसके साथ समस्त प्राणियों का तथा हमारा भी किसी दिन अवश्‍य नाश हो जायेगा, तो नाशवान भविष्य पीढियों के लिये हम अपने सुख का नाश क्यों करें?’’ अथवा, जिन लोगों का केवल इस उत्तर से पूरा समाधान नहीं होता, कि “परोपकार आदि मनोवृत्तियां इस कर्ममय, अनित्य और दृश्‍य सृष्टि की नैसर्गिक प्रवृति ही है’’, और जो यह जानना चाहते हैं कि इस नैसर्गिक प्रवृति का मूलकारण क्या है-उनके लिये अध्यात्मशास्त्र के नित्य-तत्त्वज्ञान का सहारा लेने के सिवा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। और, इसी कारण से ग्रीन ने अपने नीतिशास्त्र के ग्रन्‍थ का आरम्भ इसी तत्त्व के प्रतिपादन से किया है, कि जिस आत्मा को जड़सृष्टि का ज्ञान होता है वह आत्मा जड़सृष्टि से अवश्‍य ही भिन्न होगा; और, कान्ट ने पहले व्ययसायात्मक बुद्धि का विवेचन करके फिर वासनात्मक बुद्धि की तथा नीतिशास्त्र की मीमांसा की है।

‘मनुष्य अपने सुख के लिये या अधिकांश लोगों को सुख देने के लिये पैदा हुआ है’- यह कथन ऊपर से चाहे कितना भी मोहक तथा उत्‍तम दिखे, परन्तु वस्तुतः यह सच नहीं है। यदि हम क्षणभर इस का विचार करें, कि जो महात्मा केवल सत्य के लिये प्राण-दान करने को तैयार रहते हैं, उनके मन में क्या यही हेतु रहता है, कि भविष्य पीढ़ी के लोगों को अधिकाधिक विषयसुख होवे; तो यही कहना पड़ता है, कि अपने तथा अन्य लोगों के अनित्य आधिभौतिक सुखों की अपेक्षा इस संसार में मनुष्य का और भी कुछ दूसरे अधिक महत्त्व का परमसाध्य या उद्देश अवश्‍य है। यह उद्देश क्या है? जिन्होंने पिंड ब्रह्माण्‍ड के नामरूपात्‍मक, (अतएव) नाशवान, (परन्तु) दृश्‍य स्वरूप से आच्छादित आत्मस्वरूपी नित्य तत्त्व की अपनी आत्मप्रतीति के द्वारा जान लिया है, वे लोग उक्त प्रश्‍न का उत्तर देते हैं, कि अपने आत्मा के अमर, श्रेष्ठ, शुद्ध, नित्य तथा सर्वव्यापी स्वरूप की पहचान करके उसी में रम रहना ज्ञानवान मनुष्य का इस नाशवान संसार में पहला कर्त्तव्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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