"हरिगीता अध्याय 9:26-30" के अवतरणों में अंतर

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लेता प्रयत-चित भक्त की वह भेंट मैं अनुरक्ति से॥26॥
 
लेता प्रयत-चित भक्त की वह भेंट मैं अनुरक्ति से॥26॥
  
कौन्तेय! जो कुछ भी करो तप यज्ञ आहुति दान भी।
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कौन्तेय! जो कुछ भी करो, तप यज्ञ आहुति दान भी।
 
नित खानपानादिक समर्पण तुम करो मेरे सभी॥27॥
 
नित खानपानादिक समर्पण तुम करो मेरे सभी॥27॥
  
हे पार्थ! यों शुभ-अशुभ-फल-प्रद कर्म-बन्धन-मुक्त हो।
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हे पार्थ! यों शुभ-अशुभ-फल-प्रद, कर्म-बन्धन-मुक्त हो।
 
मुझमें मिलेगा मुक्त हो, संन्यास-योग-नियुक्त हो॥28॥
 
मुझमें मिलेगा मुक्त हो, संन्यास-योग-नियुक्त हो॥28॥
  

18:24, 20 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण

श्रीहरिगीता -दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

अध्याय 9 पद 26-30

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अर्पण करे जो फूल फल जल पत्र मुझको भक्ति से।
लेता प्रयत-चित भक्त की वह भेंट मैं अनुरक्ति से॥26॥

कौन्तेय! जो कुछ भी करो, तप यज्ञ आहुति दान भी।
नित खानपानादिक समर्पण तुम करो मेरे सभी॥27॥

हे पार्थ! यों शुभ-अशुभ-फल-प्रद, कर्म-बन्धन-मुक्त हो।
मुझमें मिलेगा मुक्त हो, संन्यास-योग-नियुक्त हो॥28॥

द्वैषी हितैषी है न कोई, विश्व मुझमें एकसा॥
पर भक्त मुझमें बस रहा, मैं भक्त के मन में बसा॥29॥

यदि दुष्ट भी भजता अनन्य सुभक्ति को मन में लिये।
है ठीक निश्चयवान् उसको साधु कहना चाहिये॥30॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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