वह धर्म-युत हो शीघ्र शाश्वत शान्ति पाता है यहीं।
यह सत्य समझो भक्त मेरा नष्ट होता है नहीं॥31॥
पाते परम-पद पार्थ! पाकर आसरा मेरा सभी।
जो अड़ रहे हैं पाप-गति में, वैश्य वनिता शूद्र भी॥32॥
फिर राज-ऋषि पुण्यात्म ब्राह्मण भक्त की क्या बात है।
मेरा भजन कर, तू दुखद नश्वर जगत् में तात है॥33॥
मुझमें लगा मन भक्त बन, कर यजन पूजन वन्दना।
मुझमें मिलेगा मत्परायण युक्त आत्मा को बना॥34॥
नवां अध्याय समाप्त हुआ॥9॥