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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
जितनी गोपियाँ रासस्थली में थीं भगवान ने अपनी उतनी मूर्तियाँ बना ली। भगवान की इस लीला में उनकी सर्वज्ञता का आत्मप्रकाश हुआ। फिर भगवान ने इस लीला में वैराग्य-शक्ति का प्रकाश किया- इन श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि शत-शत कोटि गोपिरमणियों के साथ रमण में प्रवृत्त होकर सूरत सम्बन्धी हाव-भाव का प्रकाश किये बिना ही भगवान ने सबकी मनोवासना पूर्ण कर दी। इस लीला में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कितने भावों से कितने प्रकार से अपने ऐश्वर्य वीर्यादि छः शक्तियों का विकास करने वाले बने-इसकी कोई सीमा नहीं। यहाँ केवल दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। भगवान की अपार कृपा से इस परम मधुर-लीला पर विचार करने पर यह बात मालूम हुई कि ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध महाशक्ति सम्पन्न भगवान श्रीकृष्ण अपनी महाशक्तियों का पूर्ण विकास करके ही रमण की इच्छा करने वाले बने। माने इस महाशक्तियों का पूर्ण विकास करते हुए यह लीला ही। इसलिये यह लौकिक लीला है ही नहीं! है ही नहीं!! किन्तु इस आलोचना में पूरी बात आयी नहीं। लौकिक विलास नहीं है यह बात ठीक है लेकिन भगवान का रमण क्या है; यह बात नहीं आयी। भगवान ने किस लिये इन छः महाशक्तियों का पूर्ण विकास करके यह लीला की? इस रमण का वास्तविक स्परूप क्या है? भगवान आत्माराम हैं, पूर्णकाम हैं, आनन्दस्वरूप हैं तो किस प्रयोजन की सिद्धि के लिये इन्होंने रमण की इच्छा की? प्रयोजन क्या था? वे आत्माराम हैं आप्तकाम हैं। तो यह बिना समझे भगवान के रमण की इच्छा का पूरा अर्थ ध्यान में नहीं आ सकता। इस पर विचार करते हैं। यह रमण शब्द जो है यह क्रीडा वाचक रम धातु से निष्पन्न है और इस शब्द के सुनने मात्र से ही जो बिना विचार के अर्थ करते हैं, वे केवल स्त्री विलास अर्थ ही इसको समझते हैं। तो रमण शब्द का यह अर्थ नहीं होता सो बात नहीं। पद्मपुराण में आया है भगवान राम के नाम का अर्थ करते समय- इति रामपदे नासौ परं ब्रह्माभिधीयते।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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