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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पाँचवाँ अध्याय
शरद की वह रात्रि अनेक रात्रियों से समन्वित होकर बड़ी ही शोभा पा रही थी। चन्द्रमा की किरण-ज्योत्स्ना सब ओर छिटक रही थी। काव्यों में शरत्काल की जिन रस-सामग्रियों का विवेचन किया गया है, वे सम्पूर्ण उसमें विद्यमान थीं। उस रात्रि में सत्यसंकल्प भगवान श्यामसुन्दर ने अपनी परमप्रेयसी निजस्वरूपा चिन्मयी गोपरमणियों के साथ चिन्मय लीला-विहार किया। भगवान की सत्ता से ही कामदेव में सत्ता आती है, इसलिये कामदेव का उन पर कोई भी वश नहीं चल सकता। अतएव वह यहाँ भी सर्वदा पराजित रहा। भगवान सर्वथा अस्खलितवीर्य बने रहे।।26।।
इसी बीच में राजा परीक्षित भगवान की चिन्मयी लीला का रहस्य पूरी तरह से न समझने के कारण लौकिक भाव से शंका करते हुए श्रीशुकदेवजी से प्रश्न कर बैठे। उन्होंने कहा- भगवन! भगवान श्रीकृष्ण तो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं, उन्होंने अपने वंश श्रीबलराम जी के साथ धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिये ही परिपूर्णरूप में अवतार ग्रहण किया था। ब्रह्मन! वे स्वयं धर्म-मर्यादाओं की रचना करने वाले उनकी रक्षा करने वाले तथा उपदेशक थे। फिर, उन भगवान ने स्वयं धर्म के विपरीत परस्त्रियों का अंगस्पर्श कैसे और क्यों किया? भगवान श्रीकृष्ण तो नित्य पूर्णकाम हैं, उनके मन में कभी कोई कामना जागती ही नहीं; फिर यादवेन्द्र भगवान ने किस अभिप्राय से ऐसा निन्दनीय कर्म किया? उत्तम निष्ठा वाले श्रीशुकदेवजी! आप कृपापूर्वक मेरे इस संदेह को दूर कीजिये।।27-29।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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