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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
पहला अध्याय
दुश्शीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोऽपि वा। जिन स्त्रियों को इस लोक में कीर्ति और मृत्यु के पश्चात श्रेष्ठ लोक प्राप्त करने की इच्छा हो, वे दुर्गणों से भरे-बुरे स्वभाव वाले, भाग्यहीन, वृद्ध, मूर्ख, रोगी एवं निर्धन पति का भी कभी त्याग न करें, यदि वह महापापी[1] न हो।।25।। अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्। अच्छे कुल की स्त्रियों के लिये जारपुरुष की सेवा स्वदेश-परदेश, व्यवहार-परमार्थ, इहलोक-परलोक- सर्वत्र अत्यन्त निन्दनीय है। उसके कारण स्वर्ग से वंचित होना पड़ता है, संसार में अपयश होता है, इस लोक में स्वजनों का तथा परलोक में नरकयन्त्रणा का भय प्राप्त होता है। वह कुकर्म अत्यन्त तुच्छ-क्षणिक सुख देने वाला है और कष्टदायक है।।26।। श्रवणाद् दर्शनाद् ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात्। इस पर भी जब गोपियों को चुप और अपनी अनन्यता पर दृढ़ देखा, तब उपदेश करते हुए बोले- फिर मेरे नाम-गुण-लीला आदि के श्रवण से, दूर से ही मेरा दर्शन करने से, निरन्तर मेरे रूप का चिन्तन-ध्यान करने से मेरे नाम-गुणों की चर्चा से मेरे प्रति जैसा प्रेम उमड़ता है, वैसा प्रेम अत्यन्त समीप रहने से नहीं होता, इसलिये तुम लोग अपने-अपने घर लौट जाओ।।27।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान का द्रोही
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