रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 152

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-रहस्य

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श्रीगोपीजन साधना के इसी उच्च स्तर में परम आदर्श थीं। उनकी सारी वृत्तियाँ सर्वथा श्रीकृष्ण में ही निमग्न रहती थीं। इसी से उन्होंने देह-गेह, पति-पुत्र, लोक-परलोक, कर्तव्य-धर्म- सबको छोड़कर, सबका उल्लंघन कर एक मात्र परमधर्मस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को ही पाने के लिये अभिसार किया था। उनका यह पति-पुत्रों का त्याग, यह सर्व-धर्म का त्याग ही उनके स्तर के अनुरूप स्वधर्म है।

इस ‘स्वधर्मत्याग’ रूप स्वधर्म का आचरण गोपियों- जैसे उच्च स्तर के साधकों में ही सम्भव है; क्योंकि सब धर्मों का यह त्याग वही कर सकते हैं, जो उसका यथाविधि पूरा पालन कर चुकने के बाद इसके परम फल अनन्य और अचिन्त्य देवदुर्लभ भगवत्प्रेम को प्राप्त कर चुकते हैं। वे भी जान-बूझकर त्याग नहीं करते। सूर्य का प्रखर प्रकाश हो जाने पर तैल दीपक की भाँति स्वतः ही ये धर्म उसे त्याग देते हैं। यह त्याग तिरस्कार मूलक नहीं, वरं तृप्तिमूलक है। भगवत- प्रेम की ऊची स्थिति का यही स्वरूप है। देवर्षि नारदजी का एक सूत्र है-

‘वेदानपि संन्यस्यति, केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते।’

‘जो वेदों का (वेदमूलक समस्त धर्ममर्यादाओं का) भी भलीभाँति त्याग कर देता है, वह अखण्ड भगवत्प्रेम को प्राप्त करता है।’

जिसको भगवान अपनी वंशीध्वनि सुनाकर-नाम ले-लेकर बुलायें, वह भला, किसी दूसरे धर्म की ओर ताककर कब और कैसे रुक सकता है। रोकने वालों ने रोका भी, परंतु हिमालय से निकलकर समुद्र में गिरने वाली ब्रह्मपुत्र नही की प्रखर धारा को क्या कोई रोक सकता है? वे न रुकीं, नहीं रोकी जा सकीं। जिनके चित्त में कुछ प्राक्तन संस्कार अविशिष्ट थे; वे अपने अनधिकार के कारण शरीर से जाने में समर्थ न हुई। उनका शरीर घर में पड़ा रह गया, भगवान के वियोग-दुःख से उनके सारे कलुष धुल गये, ध्यान में प्राप्त भगवान के प्रेमालिंगन से उनके समस्त पुण्यों का परम फल प्राप्त हो गया और वे भगवान के पास सशरीर जाने वाली गोपियों के पहुँचने से पहले ही भगवान के पास पहुँच गयीं। भगवान में मिल गयीं। यह शास्त्र का प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि पाप-पुण्य के कारण ही बन्धन होता है और शुभाशुभ का भोग होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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