रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 140

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

इससे मालूम होता है कि गोपरमणियों के साथ भगवान की रमण करने की इच्छा थी और गोपरमणियों की भगवान को प्राप्त करने की इच्छा थी। इन गोपरमणियों में गोपकुमारियाँ भी थीं जिन्होंने एक वर्ष पूर्व कात्यायिनी व्रत के समय से भगवान से मिलन की इच्छा की। कात्यायिनी व्रत के शेष दिन जब पूजा का समापन हो गया तब भगवान ने उनके प्रति-प्रतिश्रुति की कि आगामी पूर्णिमा को तुम लोगों की मनोकामना पूर्ण होगी। तो एक वर्ष में जितनी पूर्णिमा आती तब तक वे गोपकुमारियाँ समझतीं कि आज मिलन होगा, आज मनोवासना पूर्ण होगी। तो उनके हृदय में आनन्द भर जाता और वह पूर्णिमा का चन्द्र जब अस्तगमन करते अस्ताचल की ओर जाता तो बेचारी फिर निराशा-सागर में डूब जातीं। साथ ही राधिकादि तथा अन्यान्य गोप-वधुएँ हैं इनका भी एक साल पूर्व शरद्कालीन वन-विहार के समय जब मोहन की मुरली बजी थी उस समय श्रीकृष्ण के साथ मिलना हुआ और तभी से पुनर्मिलन का सुयोग नहीं हुआ। इस प्रकार से वहाँ केवल पूर्वरागमात्र था।

यह अन्वेषण कर रहीं थीं पर अब तक यह मिलन नहीं हुआ पर आज इतने दिनों के बाद गोपियों की मनोकामना पूर्ण करने का सुयोग आ गया। उनके अश्रुपात और मिलनाकांक्षा की वेदना से संतप्त श्वास ने आत्मकाम, पूर्णकाम निर्विकार निरीह सच्चिदानन्दघनविग्रह भगवान के हृदय को विगलित कर दिया। परमानुरागिणी और मिलनाकांक्षिणी श्रीगोपरमणियों के भावों के अनुरूप भावों से भावित होकर आज भगवान ने उन गोपरमणियों के साथ मिलन-इच्छा की। इसके कारण हैं वो निर्जन अश्रुपात और मिलनाकांक्षा की वेदना सं संतप्त उष्ण श्वास। इसी ने पूर्णकाम भगवान में इच्छा उत्पन्न की।

भगवान शब्द की व्याख्या के प्रसंग में ऐश्वर्य वीर्यादि षडविध महाशक्ति पर बातचीत जब की उस समय यह बात कही जा चुकी है।

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’[1] और ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’[2] तथा ‘साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च’[3] इत्यादि सैकड़ों श्रुति वाक्यों से जो भगवान का परिचय मिलता है वहाँ पर भगवान की इस प्रकार की किसी रमण इच्छा की सिद्धि नहीं हो सकती परन्तु रासारम्भ में भगवान की रमणेच्छा, शरत्पूर्णिमा की रजनी की शोभा देखकर के उनका भावोद्दीपन और वंशीनाद के द्वारा गोपरमणियों का अपने निकट आनयन, इससे मालूम होता है कि गोप रमणियों के प्रेम में भी कोई विशेषता है जो ‘सत्यं ज्ञानमनतं ब्रह्म’ और ‘साक्षी चेता केवलो निगुर्णश्च’ इस प्रकार के ब्रह्म के हृदय का निर्माण करके इसमें इच्छा पैदा कर दी। यह गोपरमणियों की कोई विशेषता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तैत्तिरीयोपनिषद 2।1।2
  2. तैत्तिरीयोपनिषद 2।9।1
  3. श्वेताश्वतरोपनिषद 6।11

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