रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 135

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन

ज्यादा नमक-मिर्च नहीं लगाते। शुकदेव जी के समान वाग में कौन होगा? भगवान व्यास के समान वाग में कौन होगा जो वाग्मणि-शिरोमणि हैं। अतः अपना वक्तव्य प्रकाशित करने के लिये इतना लम्बा वाक्य क्यों कहा उन्होंने और फिर दूसरी बात यह है कि केवल कवि ही नहीं परमहंस शिरोमणि जो शुकदेवजी हैं ये तो व्यर्थ बात कहना जानते ही नहीं। यह तो मुनि हैं। जो सार चीज है वही कहना जानते हैं इससे अधिक ये कहते नहीं। स्वभाव नहीं इनका व्यर्थ बोलने का। उन्होंने यहाँ ‘रिरंसामास किंवा रन्तुं एष’ न कहकर ‘रन्तुं मनश्चक्रे’ कहा इससे मालूम पड़ता है कि कोई विशेष तात्पर्य है। तो क्या तात्पर्य है? यह साहित्यकारों का जरा समझने का विषय है। (स्वामी जी इसको समझेंगे, यह व्याकरण शास्त्री पण्डित है। हम तो ख़ाली कहीं हुई बाच देंगे।)

शुकदेव जी जो ‘भगवानपि रिरंसामास किंवा रन्तुं एष’ कहते तो क्या सिद्ध होता कि अखण्ड इच्छाशक्तिमान भगवान ने रमण की इच्छा की। किंतु वह इच्छा हम लोगों की इच्छा की भाँति नहीं होती। क्योंकि यहाँ भगवान हमारी मनोवृत्ति के अनुसार काम कर रहे हैं। हमारी मनोवृत्ति में और भगवान की मनोवृत्ति में बड़ा अन्तर है। हमारे देखने, सुनने, सूँघने में और भगवान के देखने, सुनने, सूँघने में बड़ा अन्तर है। हमारा देखना, सुनना, इच्छा करना, गमन करना यह भगवान के देखने, सुनने, इच्छा करने, गमन करने के समान नहीं है। बड़ी पृथकता है। हम आँख द्वारा किसी वस्तु विशेष को देखते हैं, कान द्वारा किसी शब्द विशेष को सुनते हैं, मन के द्वारा किसी अभीष्ट विषय की इच्छा करते हैं और पैरों के द्वारा किसी स्थान विशेष पर जाते हैं किन्तु भगवान सर्वद्रष्टा हैं। वे सब कुछ देखते हैं। वे आँख के द्वारा किसी निर्दिष्ट वस्तु विशेष को नहीं देखते। वे सब सुनते हैं, वे कान के द्वारा किसी निर्दिष्ट शब्द को ही नहीं सुनते। वे इच्छामय हैं उनकी इच्छा किसी एक निर्दिष्ट-अभीष्ट विषय के लिये नहीं होती। उनको मन से इच्छा ही नहीं करनी पड़ती यहाँ तो मन से इच्छा करनी पड़ती है। वे सर्वगत हैं इसलिये पैरों के द्वारा किसी स्थान विशेष में गमन नहीं करते हैं। श्रीभगवान के इस प्रकार के चक्षु-कर्णादि इन्द्रियाधीनताविहीन और किसी निर्दिष्ट विषय के साथ सम्बन्धविहीन दर्शन श्रवणादि होने के कारण से वो इच्छा दूसरी। यहाँ उपनिषद् वचन द्वारा यह आता है कि

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्वेताश्वतरोपनिषद 3।19

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