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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन-2
भगवान ने जब मधुर मिलन के द्वारा रसास्वादन करने की इच्छा की तो वंशी दूती की सहायता के बिना उनके पास कोई गति नहीं। इसलिये वंशी की सहायता से उन्होंने रासक्रीडा करने की इच्छा की - ‘योगमायामुपाश्रितः।’ फिर कहते हैं बड़ी सुन्दर बात कि यह वंशी जो है यह न तो मत्स्य, कूर्म, वाराहादि अवतार में रही और न हीं भगवान के रामवतार में ही रही। भगवान ने बड़ी-बड़ी लीलाएँ की और सारी लीलाएँ भगवान की परम दिव्य है। कोई भी लीला कम हो तात्त्विक दृष्टि से सो बात नहीं। सभी लीलाओं में योगमाया भी साथ थी। पर वंशी-योगमाया जो है यह तो बस यहीं पर है। वंशीधारी जो कृष्ण हैं-भगवान वंशीधारी, ‘भगवानपि’ यह वंशीधारी भगवान यहाँ कि सिवा कहीं नहीं। भगवान का सारी मूतियों में शंख रहे, चक्र हरे, गदा रहे, पद्म रहे, वाण, खड्ग इत्यादि यह भी रखे हैं। कुरुक्षेत्र में गये तो वहाँ भी चक्के को बुला लिया। चक्का उठाकर घुमाया तो वह सुदर्शन चक्र बन गया। लेकिन यह व्रज में भगवान ने वन-वन में घूम-घूमकर वंशी ध्वनि की। कुंज-कुंज में, यमुना के पुलिन-पुलिन पर, गोवर्धन की तराई में, गोवर्धन के ऊपर, सड़सी के पेड़ पर सुख से विचरण करते हुये भगवान ने जो परमानन्द रसास्वादन किया और उसका वितरण किया उसमें वंशी की परम सहायता रही। इसलिये वंशी को उन्होंने कभी छोड़ा नहीं। एक दिन की बात है ये जाकर कहीं निकुंज में छिप गये। इनको मजा आता है इसमें कि कुछ उत्कंठा बढ़े, कुछ लोग हमको ढूँढ़े। योगियों का ढूँढना दूसरा होता है उसमें माधुर्य नहीं होता है। वहाँ आँख मीच के बैठे हैं। ऐसा टीकाकार कहते हैं। इसमें कान खींचने, आँख मींचने की आवश्यकता नहीं है। यह तो दौड़े खुले आम उनके पीछे-पीछे, अब ढूँढ़ो। यह जाकर निकुंज में घुसे और घुसकर एक पेड़ की आड़ में हो गये तो ये गोपियाँ वहाँ पहुँच गयीं। तब इन्होंने देखा कि अब तो पकड़े जायेंगे तो नारायण बन गये। शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी बड़े सुन्दर, विशाल नेत्र और बड़े सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने हुये। मुकुटधारी तमाम दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित भगवान खड़े वहाँ पर। गोपियाँ आश्चर्य में पड़ गयीं। सम्भ्रम हो गया, भय हो गया और इनके सामने खड़े होकर हाथ जोड़ लिया। मुस्कुराये और बोले क्यों? तब हिम्मत करके बोली, हे नाथ! हमारे श्यामसुन्दर कहीं चले गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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