रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 108

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-चिन्तन-2

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स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) में दिये गये प्रवचन


लोहा-यह विशेष लोहा जो है इसको खींचने के लिये चुम्बक भी बहुत बड़ा होना चाहिये। यह मामूली लौकिक प्रेम में जैसे संसार को चाहते हैं। ऐसे ही भगवान को भी चाह लिया। इस प्रकार मामूली चाह से यह लोहा खिंचता नहीं है। थोड़ा-थोड़ा खींच जाय पर पूरा लोहा नहीं खिंचता। जिस प्रकार की श्रीगोपरमणियों पर कृपा हुई उस प्रकार की कृपा तो गोपरमणियों के समान चुम्बक होने से ही होती है नहीं तो होती ही नहीं। विषयी पहले नहीं चलता है।

कहते हैं कि व्रजरमणियों के प्रेम की इतनी बड़ी महिमा और इस प्रेम का परिमाण इतना प्रचुर इतना महान कि भगवान की कोटि-कोटि सुमेरु से भी अधिक वृहत्तर कृपाराशि को विचलित होकर दौड़ना पड़ा उनकी तरफ। भगवान की कृपा विचलित हो गयी अर्थात भगवान की कृपा जो है यह वहाँ देख नहीं सकी कि क्या करने जा रहे हैं। भगवान की कृपा विचलित होकर उस प्रचुर परिमाण के लोहे के सामने, गोपरमणियों के प्रेम के सामने धावित हो गयी, दौड़ पड़ी। इसलिये भगवान की इस परम मधुर रासलीला को ‘अयोगमायामुपाश्रितः’ इस प्रकार की समझकर ‘रन्तुं मनश्चक्रे’-भगवान ने रमण की इच्छा की-यह एक अर्थ है।

फिर कहते हैं कि भगवान के इस रासक्रीड़ा में कृपा के अनेक प्रकार हैं। ‘यः अगमायां उपाश्रितः’ इस प्रकार से यदि पदच्छेद करें तो भगवान की इस कृपा का एक नवीन दर्शन होता है। वहाँ भगवान ने रमण की इच्छा की। ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’ तो यहाँ एक प्रश्न होता है कि अनन्तरूपधारी भगवान ने किस रूप में रमण की इच्छा की? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है कि-‘यः अगमायां उपाश्रितः सः भगवान रन्तुं मनश्चक्रे’

अनन्त मूर्तिधारी भगवान जिस मूर्ति से इस अगमाया का प्रकाश करते हैं जहाँ यह प्रकाश हुआ अगमाया का उसी मूर्ति से इन्होंने इच्छा की। तो योगमाया का अर्थ हम करते हैं-निश्चल कृपा, अचल कृपा-‘न गच्छति न चलति इति अगा, निश्चला सा चा सौ मायाकृपा तेपि अगमाया तामुपाश्रिता प्रकटीकृतः।’ अपार करूणामय श्रीभगवान की कृपा को प्राप्त करना यह भाग्यवानों के भाग्य में हो तो जाता है क्योंकि वह कृपा बड़ी सरल भी है परन्तु स्थायी भाव से कृपा अचल होकर रह जाय। यह सबके लिये सहज नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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