मेरो मन बसिगो गिरधरलाल सों -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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विनय

शब्‍द


मेरो मन बसिगो गिरधरलाल सों ।। टेक ।।
मोर मुकुट पीताम्‍बर हो, गल बैजंती माल ।
गउवन के संग डोलत, हो जसुमति को लाल ।
कालिंदी के तीर हो, कान्‍हा गउवाँ चराय ।
सीतल कदम की छाहियाँ, हो मुरली बजाय ।
जसुमति के दुवरवाँ हो, ग्‍वालिन सब जाय ।
बरजहु आपन दुलरुवा, हमसों अरुझाय ।
बृन्‍दाबन क्रीड़ा करै, गोपिन के साथ ।
सुर नर मुनि मोहे हो, ठाकुर जदुनाथ ।
इन्‍द्र कोप घन बरखो, मूसल जलधार ।
बूड़त ब्रज को राखेऊ मोरे प्रान अधार ।
मीरा के प्रभु गिरधर हो, सुनिय चितलाय ।
तुम्‍हरे दरस की भूखी हो, मोहि कछु न सोहाय ।।6।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बसिगो = ठहर गया, रम गया। सों = साथ, संग। डोलत हो = घूमते फिरते हो। कालिंदी = यमुना। दुवरवाँ = द्वार पर। दुलरुवा = दुलारा, लाड़ला।

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