मीराँबाई की पदावली पृ. 25

मीराँबाई की पदावली

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काव्यत्व

अतएव अपनी इस प्रकार की वास्तविक सिथति का पता लगते ही मनुष्य को पुरानी बातें जैसे स्मरण हो आती हैं और वह आप से आप कह उठता है-

‘‘हुता जो एकहि संग, हौ तुम काहे बीघुरा ?
अब जिउ उठै तरंग, मुहमद कहा न जा कछु॥[1]

अर्थात् सदा एक ही साथ रहने वालों में, आखिर किस प्रकार वियोग हो गया जिससे आज हृदय में भाँति-भाँति के भाव पैदा हो रहें हैं और अपनी विचित्र स्थिति का हाल कहते नहीं बनता।[2] मीराँबाई ने अपने प्रेम की प्राथमिक अवस्था को भी इसी कारण, सद्गुरु उपदेशजन्य विरह के रूप में ही दर्शाया है।[3]

विरह वर्णन

मीराँबाई के प्रेम की दूसरी अवस्था वा विरह का दर्शन विप्रलंभ श्रृंगार के ही जैसा हुआ है किन्तु, उसमें आंतरिक वेदना का समावेश अधिक होने से, मानसिक पक्ष की प्रधानता है; शारीरिक तापादि का वर्णन कम होने से शारीरिक पक्ष गौण समझा जा सकता है। शारीरिक कष्टों की तीव्रता व असह्यता का प्रदर्शन अधिकतर परम्परानुसार है और कई पदों[4] में अत्युक्तियों से भरा है परन्तु स्वानुभूति के कारण, उसमें भी उतनी अस्वाभाविकता नहीं जान पड़ती। मानसिक कष्टों का वर्णन प्रायः सभी अनूठे और स्वाभाविक हैं। उनमें प्रायः सब कहीं बेचैनी व विवशता से भरी हुई मर्मोतक वेदना ही एक सच्ची कहानी सुन पड़ती है। उनका ‘विश्वास-संगाती’ प्रभु ‘नेहड़ी’ लगाकर चला गया है और उन्हें ‘प्रेम की बाती बहा कर’ एवं ‘नेह की नाव चलाकर’ ‘विरह समँद में’ छोड़ गया है, उसके बिना उन्हें रहा नहीं जाता[5] अवसर आने पर भी वे उसे भरपूर देख न सकीं और न उससे जी खोलकर बातें ही कर सकीं, अतएव, उन्हें इस बात का कष्ट है कि कदाचित् हरि ने उनकी भीतरी ‘आर्ति’ वा चाह को भली-भाँति समझ ही न पाया हो।

इस असह्य भावना से अत्यन्त दुःखिनी बन, वे कटारी से ‘कंठमार’ कर अथवा ‘विष खाकर’ भी अपने प्राण देने पर उतारू हैं क्योंकि उनकी समझ में नहीं आता है कि इस दुर्दशा में भी, आखिर में ‘पापी’ उनके ‘पंडा’ वा शरीर को आप से आप क्यों नहीं छोड़ भागते[6] ? उन्हें खाना पीना तो भाता नहीं, रात को उनसे सोना तक नहीं बन पड़ता, उनकी अपनी सेज ‘सूली’ पर बिछी हुई जान पड़ती है।[7] उस पिया की ‘जोत’ बिना ‘मंदिर अँधियारो’ दीखता है किन्तु तो भी उसमें दीपक जलाना पसन्द नहीं आता[8] रात भर उसके बिना सूनी सेज पर सिसकते-सिसकते जी जाता रहता है।[9] कभी कभी सुध भूलने पर आँख लगते ही, वे ‘चमक’ उठा करती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वही, पद 336
  2. परशुराम चतुर्वेदी: 'जायसी और प्रेमतत्त्व' -हिंदुस्तानी(भा० 4 सं० 3, 1934ई.०)हिंदुस्तानी एकेडेमी, प्रयाग।
  3. देखो पद - 155, 156, 159
  4. जैसे, पद 74
  5. पद 66
  6. पद 68
  7. पद 72
  8. पद 75
  9. पद 79

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