मीराँबाई की पदावली पृ. 19

मीराँबाई की पदावली

Prev.png
माधुर्य भाव
परिचय या गोपीभाव

मीराँबाई की पदावली में, इसी कारण, सर्वत्र हमें भक्ति रस की उस धारा का ही प्रभाव लक्षित होता है जिसे ‘माधुर्य भाव’ अथवा ‘मधुरस’ कहा करते हैं। मधुर रस भक्ति की अन्य धाराओं, जैसे शाँत, दास्य, सख्य, वा वात्सल्य, से भिन्न है। ‘शांत’ के अनुसार भक्त, भगवान् के सगुण रूप का अनुभव कर उनका स्वरूप चिंतन किया करता है और ‘दास्य’ के अनुसार उनके ऐश्वर्य-चिन्तन में मग्न रह कर उनका गौरव गान करता रहता है तथा, इसी प्रकार, ‘सख्य’ के अनुसार वह भगवान् को, किशोरावस्था का सखा मान, उनसे न्यूनाधिक अनियंत्रित प्रेम करने लगता है और ‘वात्सल्य के अनुसार उनके बालरूप पर ही अधिक मुग्ध होकर, उनकी बाललीला का रसास्वादन किया करता है। किन्तु ‘मधुररस’ के अनुसार भक्त उनको अपने पति वा सर्वस्व के रूप में देखता है और, इसी कारण, उनके साथ उसका सम्बन्ध अत्यन्त धनिष्ठता का हो जाता है। कहते हैं कि जो ‘आत्ति’ वा गूढ़ प्रेम एक युवती के हृदय में, किसी युवक को देखकर, जाग उठता है वह अत्यन्त दुर्लभ है; इसी कारण भक्त लोग श्री भगवान् कृष्ण को, स्थिर चित्त के साथ, पत्नी भाव से ही नित्य भजा करते हैं।’’[1] स्त्री पुरुष की ऐसी ही आसक्ति के सम्बन्ध में श्रृंगार रस का भी प्रादुर्भाव होता है, अतएव, मधुररस के भी भाव, विभाव अनुभावादि प्रायः उसी प्रकार के होते हैं जैसे श्रृंगाररस के। किन्तु इन दोनों में महान अंतर पाया जाता है। श्रृंगाररस का विषय, सांसारिक होने से, जड़ मूर्तिरूप है, किन्तु मधुररस का विषय अलौकिक एवं स्वयं भगवान् स्वरूप है, अतएव श्रृंगाररस के स्थायी भाव रति का सम्बन्ध यदि स्थूल या लिंग शरीर से है तो मधुररस, एक प्रकार से, स्वयं आतमा का ही धर्म है।[2] मधुररस का अनुभव, श्रृंगाररस के समान होने पर भी, वस्तुतः, इंद्रियातीत है। श्रृंगाररस मधुररस में परिणत हो सकता है यदि भक्ति की स्थ्तिि उस प्रकार की हो जाय जैसी ब्रज की गोपियों की थी।

ब्रज की गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम पराकाष्ठा को पहुँच गया था। वे उनकी स्वकीया वा विवाहिता भार्यायें नहीं थीं। वे परकीया थीं और, इसी कारण, अपने प्रेम के स्वाभाविक स्फुटण में उन्हें अनेक प्रकार की बाधाओं का सामना भी करना पड़ता था। किन्तु, जैसा नियम है, इन बातों में बाधायें जितने संकट के समान खड़ा करती हैं, प्रेम की गति उतनी ही तीव्र होती जाती है और अंत में, वह एक विचित्र मधुर पागलपन का रूप धारण कर लेता है जिसे अधिक उपयुक्त शब्द में हम ‘दीवानापन’ कह सकते हैं। इस प्रेम का अवसान इन्द्रियों द्वारा उपभोग, शरीरादि मात्र की आसक्ति वा स्वार्थ लाभ में ही नहीं हो जाता।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'गोविन्ददासेर कडचा', पृ० 10।
  2. श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी: 'मधुरस की साधना', ('कल्याण'- साधनांक पृष्ठ 175)

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः