प्रेम सुधा सागर पृ. 35

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
छठा अध्याय

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अब तो पूतना के प्राणों के आश्रयभूत सभी मर्मस्थान फटने लगे। वह पुकारने लगी- ‘अरे छोड़ दे, छोड़ दे, अब बस कर।’ वह बार-बार अपने हाथ और पैर पटक-पटक कर रोने लगी। उसके नेत्र उलट गये। उसका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया। उसकी चिल्लाहट का वेग बड़ा भयंकर था। उसके प्रभाव से पहाड़ों के साथ पृथ्वी और ग्रहों के साथ अन्तरिक्ष डगमगा उठा। सातों पाताल और दिशाऐं गूँज उठीं। बहुत-से लोग वज्रपात की आशंका से पृथ्वी पर गिर पड़े। परीक्षित! इस प्रकार निशाचरी पूतना के स्तनों में इतनी पीड़ा हुई कि वह अपने को छिपा न सकी, राक्षसी रूप में प्रकट हो गयी। उसके शरीर से प्राण निकल गये, मुँह फट गया, बाल बिखर गये और हाथ-पाँव फैल गये। जैसे इन्द्र के वज्र से घायल होकर वृत्रासुर गिर पड़ा था, वैसे ही वह बाहर गोष्ठ में आकर गिर पड़ी।

राजेन्द्र! पूतना के शरीर ने गिरते-गिरते भी छः कोस के भीतर के वृक्षों को कुचल डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना हुई। पूतना का शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुँह हल के समान तीखी और भयंकर दाढ़ों से युक्त था। उसके नथुने पहाड़ की गुफ़ा के समान गहरे थे और स्तन पहाड़ से गिरी हुई चट्टानों की तरह बड़े-बड़े थे। लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे। आँखें अंधे कुएँ के समान गहरी, नितम्ब नदी के करार की तरह भयंकर; भुजायें, जाँघें और पैर नदी के पुल के समान तथा पेट सूखे हुए सरोवर की भाँति जान पड़ता था। पूतना के उस शरीर को देखकर सब-के-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयंकर चिल्लाहट सुनकर उनके हृदय, कान और सर तो पहले ही फट से रहे थे। जब गोपियों ने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छाती पर निर्भय होकर खेल रहे हैं[1], तब वे बड़ी घबराहट और उतावली के साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा श्रीकृष्ण को उठा लिया। इसके बाद यशोदा और रोहिणी के साथ गोपियों ने गाय की पूँछ घुमाने आदि उपायों से बालक श्रीकृष्ण के अंगों को सब प्रकार से रक्षा की। उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्ण को गोमूत्र से स्नान कराया, फिर सब अंगों में गो-रज लगायी और फिर बारहों अंगों में गोबर लगाकर भगवान के केशव आदि नामों से रक्षा की। इसके बाद गोपियों ने आचमन करके ‘अज’ आदि ग्यारह बीज-मन्त्रों से अपने शरीर में अलग-अलग अंगन्यास एवं करन्यास किया और फिर बालक के अंगों में बीजन्यास किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पूतना के वक्षःस्थल पर क्रीड़ा करते हुए मानो मन-ही-मन कह रह थे— ‘मैं दुधमुँहा शिशु हूँ, स्तन पान ही मेरी जीविका है। तुमने स्वयं अपना स्तन मेरे मुँह में दे दिया और मैंने पिया। इससे यदि तुम मर जाती हो तो स्वयं तुम्हीं बताओ इसमें मेरा क्या अपराध है।’ राजा बलि की कन्या थी रत्नमाला। यज्ञशाला में वामन भगवान को देखकर उसके हृदय में पुत्र स्नेह का भाव उदय हो आया। वह मन-ही-मन अभिलाषा करने लगी कि यदि मुझे ऐसा बालक हो और मैं उसे स्तन पिलाऊँ तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। वामन भगवान ने अपने भक्त बलि की पुत्री के इस मनोरथ का मन-ही-मन अनुमोदन किया। वही द्वापर में पूतना हुई और श्रीकृष्ण के स्पर्श से उसकी लालसा पूर्ण हुई।

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